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अपभ्रंश-साहित्य
ऊपर बताया जा चुका है कि शरीर का प्रधान आधार रीढ़ या मेरुदण्ड है । इसके भीतर तीन नाड़ियों से होता हुआ प्राण वायु संचरित होता है । बाईं नासिका से ललना और दाईं नासिका से रसना नामक प्राणवायु को वहन करने वाली नाड़ियाँ चलती हैं । इनमें पहली प्रज्ञा-चन्द्र- है और दूसरी उपाय - सूर्यं । इन्हीं को इडा और पिंगला कहा गया है । मध्यवर्ती नाड़ी अवधूती है । यह सुषुम्णा भी कही जाती है । इसी अवधूती नाड़ी से जब प्राणवायु ऊर्ध्व गति को प्राप्त होता है तो ग्राह्य और ग्राहक का ज्ञान नहीं रहता । अत एव अवधूती नाड़ी ग्राह्य ग्राहक वर्जिता कही गई है । मेरु गिरि के शिखर पर महासुख का आवास है वहां एक चौसठ दलों का कमल है । यह कमल चार मृणालों पर स्थित है । इसी चौसठ दलों वाले कमल (पद्म) पर स्थित वज्रधर (योगी) इस पद्म का आनन्द वैसे ही लेता है जैसे भ्रमर प्रफुल्ल कुसुम का । इन चार मृणालों के दलों को शून्य, अतिशून्य, महाशून्य, और सर्व शून्य नाम दिया गया है । सर्व शून्य के आवास
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नाम ही उष्णीष कमल है । यहीं डाकिनी जालात्मक जालन्धर गिरि नामक महामेरु fift का शिखर है । यही महासुख का आवास है । इसी गिरि शिखर पर पहुँचने पर योग वज्रधर कहलाता है । यहीं वह सहजानन्द रूप महासुख का अनुभव करता है । "
ऊपर कहा के पद में अवधूती नाड़ी ही डोम्बिनी या डोमिनी है और चंचल चित्त ही ब्राह्मण है । डोमिन से छू जाने के भय से वह अभागा ब्राह्मण भागा भागा फिरता है । विषयों का जंजाल एक नगर के रूप में है और अवधूती रूपी डोमिन इस नगर से बाहर रहती है । कण्ह पा कहते हैं कि हे डोमिन तुम चाहे नगर के बाहर कहीं रहो यह निर्घृण और नग्न ( लांग) कापालिक कण्हपा तुम्हारा ही संग करेगा । उसी उपरि निर्दिष्ट चौसठ पंखुड़ियों के दल पर डोमिन नाच रही है ।
इसी अवधूती के संग से उत्पन्न महासुख का कण्हपा ने निम्नलिखित विवाह के रूपक द्वारा वर्णन किया है-
राग -- भैरवी
भव
निर्वाण पड़ह मादला ।
मण पaण देणि करण्ड कशाला ॥
जअ जअ दुन्दुहि साद उछलिला । का डोम्बी विवाहे चलिला ॥ डोम्बी विवाह अहारिउ जाम । जउतुके किड आणुतु धाम ॥ अह निसि सुरअ पसंगे जाऊ । जोइणि जाते अणि पोहाअ ||
१. डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी -- नाथ संप्रदाय, हिन्दुस्तानी एकेडमी, उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद, सन् १९५०, पृ० ९३ ।