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अपभ्रंश मुक्तक काव्य-२
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मार्ग, गुरु की महत्ता काय रूपी पुण्य तीर्थ, तन्त्र-मन्त्र आदि का खंडन, धर्म के बाह्य रूप बोधक कर्मकलाप का कट्टरता से विरोध इत्यादि।
सिद्धों की कविता काव्यदृष्टि से चाहे उत्कृष्ट कोटि की कविता न कही जा सके तथापि इनकी कविता की अपनी विशेषता है। हृदय के भावों की सरिता चाहे रूढिबद्ध प्रणालियों में बहती हुई प्रतीत न होती हो तथापि उस सरिता में वेग है, एक अनुपम सौंदर्य है और अद्भुत प्रभावोत्पादकता है जिस के कारण इन कविताओं को पढ़ कर पाठक की आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है।
सिद्धों के काल के विषय में पर्याप्त मतभेद है । श्री विनयतोष भट्टाचार्य ने सरहपा सिद्ध का समय वि० सं० ६९० माना है। श्री राहुल सांकृत्यायन इनका काल सन् ७६० ई० मानते हैं। इस प्रकार श्री राहुल सांकृत्यायन सिद्धों का काल ८०० ई० से १२०० ई० तक मानते हैं। डा० सुनीति कुमार चैटर्जी सिद्धों की भाषा को इस काल के बाद की समझते हैं और इसी भाषा के आधार पर सिद्धों का काल १००० ई० से १२०० ई० के लगभग मानते हैं।'
सिद्धों की संख्या चौरासी मानी गई है। राहुल जी ने चौरासी सिद्धों की नामावली भी दी है । सिद्ध चौरासी ही थे या इस संख्या का कोई विशेष महत्त्व था कहना कठिन है । इन चौरासी सिद्धों की परम्परा में अनेक सिद्ध समसामयिक हैं। अनेक सहजयानी सिद्धों के नाम नाय सिद्धों की सूची में भी समान मिलते हैं। सिद्धों के नाम के पीछे पाद शब्द सम्मान का द्योतक है । इसी का विकृत रूप पा है।
सिद्धों की रचनाओं की भाषा पूर्वी अपभ्रंश है । पूर्व की प्रादेशिक भाषाओं के प्रभाव के कारण कुछ विद्वानों ने इस भाषा को भिन्न भिन्न पूर्वी देशों की भाषा समझ लिया। श्री विनय तोष भट्टाचार्य इन की भाषा को उडिया, श्री हरप्रसाद शास्त्री बंगला, राहुल जी मगही कहते हैं। किन्तु डा० प्रबोधचन्द्र बागची इन की भाषा को अपभ्रंश मानते हैं। डा० सुनीति कुमार चटर्जी का भी यही विचार है कि सिद्धों की भाषा अपभ्रंश ही है। १. डा० सुनीति कुमार चैटर्जी, दी ओरिजन एंड डेवल्पमेंट आफ बंगाली लेंग्वेज,
पृ० १२३ । २. डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाय संप्रदाय, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, ___ सन् १९५०, पृ० २७-३२ । ३. साधनमाला--गायकवाड़ ओरियंटल सिरीज संख्या ४१, पृ० ५३ । ४. बौद्ध गान ओ दोहा, पृ० २४ । ५. गंगा पुरातत्दांक, पृ० २५४। ६. डा० प्रबोषचन्द्र बागची,कलकत्ता, ओरियंटल जर्नल, भाग १, अक्तूबर १९३३
सितम्बर १९३४, पृ० २५२। ७. डा० सुनीति कुमार चैटर्जी, दि ओरिजन एंड डेवल्पमेंट आफ बी बंगाली
लेग्वेज पृ० ११२।