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अपभ्रंश मुक्तक काव्य--२
होता है। सरह कहते हैं कि सहज मार्ग के अनुगमन से बायें दायें जो खाई और गड्ढे ह सरल हो जाते हैं।
निम्न लिखित पद में सरह उपदेश देते हैं :
"काया रूपी सुन्दर नौका में मन रूपी नौकादण्ड लगाकर, सद्गुरु वचन रूपी पतवार को धारण कर स्थिरचित्त से नौका को चलाओ । पार जाने का अन्य उपाय नहीं। नाविक नौका को रस्सी से खींचता है। मानव सहजमार्ग से ही पार जा सकता है अन्य उपाय नहीं। मार्ग में अत्यधिक भय है । प्रचंड लहरों से सब प्रकंपित है। कूल पर प्रचंड स्रोत में भली भाँति नौका चलाने से ही, सरह कहते हैं, गगन समाधि प्राप्त होगी।
राग भैरवी
"काअ णावडि खांटि मण केडुआल । सद्गरु वअणे धर पतवाल ॥ चीअ थिर करि धरहु रे नाइ आण उपाय पार ण जाइ॥ नौवाही नौका टाणअ गुणे। मेलि मेलि सहजें जाउ ण आणे ॥ वाटत भअ खांट वि बलआ भव उलोले सव वि बोलिआ॥ कुल लइ खरे सोत्तें उजाम सरह भणइ गअणे समाअ॥
(चर्यापद, ३८) शबर पा : यह सरह पाद के शिष्य थे। लुई पा इन के शिष्य थे। संभवतः शबरों या कोल-भीलों के समान रहन सहन के कारण इन्हें शबर पाद कहा जाने लगा। राहुल जी ने तन् जूर में इन के अनूदित ग्रन्थों की संख्या २६ बताई है और उन में निम्नलिखित ग्रन्थों का निर्देश किया है-चित्त गुह्य गम्भीरार्थ गीति, महामुद्रा वज्र गीति, शून्यता दृष्टि इत्यादि।
ऊपर निर्देश किया जा चुका है कि सिद्ध, मेरुदण्ड या सुषुम्णा के सिरे पर पवन एवं मन को एक साथ निश्चल करते हैं। इस मेरुदण्ड को पर्वत के समान माना गया है
१. खांटि-सुन्दर। केडआल--पतवार । नाइ--नाविक । नौवाही-नाविक । टाणअ--खींच । वाटत-मार्ग में। भअ--भय । खांट-अत्यधिक । वलआबलवान्, प्रचंड । बोलिआ-- कम्पित हो गया। कुल-कूल, किनारा। खरे सोते--प्रचंड धारा में। उजाज--बहाओ, चलाओ।