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अपभ्रंश-साहित्य
जिस के सर्वोच्च शिखर पर महामुद्रा -- मूलशक्ति -- नैरात्मा का वास स्थान है । शबर पा इसी का वर्णन निम्न लिखित पद में करते हैं
राग वलाडि
"ऊँचा ऊँचा पावत तहिं वसइ सवरी बाली । मोरंग पीच्छ परहिण सवरी गिवत गुञ्जरी माली ॥
उमत सवरो पागल सवरो मा कर गुली गुहाडा तोहोरि । णिअ घरिणी नामे सहज सुन्दरी ॥
नाना तरुवर मोउलिल रे गअणत लागं लो डाली । एक ली सवरी ए वण हिण्डइ कर्ण कुण्डल वज्र धारी ॥ तिअ धाउ खाट पडिला सवरो महासुखे सेजे छाइली । सवरो भुजंग नैरामणि दारी पेम्ह राति पोहाइली ॥ हिअ ताँबोला महासुहे कापुर खाइ ।
सुन नैरामणि कंठे लइआ महासुहे राति पोहाइ ॥ गुरुवाक् पुंछिआ बिन्ध निअमण बाणे ।
एके शरसन्धानें बिन्धह बिन्धह परमणिवाणे ॥
उमत सवरो गरुआ रोषे ।
गिरिवर सिहर सन्धि पइसन्ते सवरो लोडिब कइसे ' ॥
( चर्यापद, २८) अर्थात् ऊँचे पर्वत पर शबरी बालिका (नैरात्मा ) रहती है । उस का अंग मोर पंखों से शोभित है, गले में गुंजा माला है । शबर इसे पाने के लिये पागल है । वही तुम्हारी गृहिणी है- सहज सुन्दरी है । उस उच्च शिखर पर अनेक वृक्ष मुकुलित हैं उनकी शाखायें गगन स्पर्शी हैं। अकेली शबरी (नैरात्मा ) वन में विचरती है । वहीं त्रिधातु-निर्मित खट्वा रखी है, महासुख रूपी शय्या बिछी हुई है । साधक वहां पहुँच कर उसी नैरात्मा रूपी दारिका के साथ आनन्द से विहार करता है- प्रेम से रमण करता है । वही महासुख है । उस का साधन, गुरु वाक्य रूपी पंखों से बने धनुष को लेकर उस पर निज मन रूपी बाण का सन्धान कर परम निर्वाण का भेद करना है । उन्मत्त साधक जब उस पर्वत शिखर पर पहुँच जाता है तब वहां से उसका लौटाया जाना कैसे संभव है ?
उत्तर काल में भगवान को स्त्री रूप में आराध्य मानकर उससे प्रेम करना और उसकी प्राप्ति का प्रयत्न सिद्धों की इसी विचारधारा का परिणाम प्रतीत होता है ।
१. पावत - - पर्वत । गुंजरी माली -- गुंजा माला । उमत - - उन्मत्त | मोउलिल-
मुकुलित | गणत -- गगन से । तिअ धाउ - - त्रिधातु की। नैरामणिनैरात्मा । पंह -- प्रेम से या देखते हुए । पोहाइली -- बिताई । लोडिब-लौटाया जाय ।