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अपभ्रंश-साहित्य
आराधना सार, तत्वसार और भावसंग्रह नामक ग्रंथ भी लिखे ।' भाव संग्रह में और सावयधम्म दोहे में विषय का साम्य है। लेखक ने इस ग्रंथ की रचना वि० सं० ९९० के लगभग मालवान्तर्गत धारा नगरी में की थी। लेखक दिगम्बर जैन था।
इस ग्रंथ में लेखक ने अध्यात्म विवेचन का प्रयत्न न कर श्रावकों-गृहस्थों के योग्य कर्तव्यों का उपदेश दिया है। यद्यपि योगीन्द्र के परमप्पयासु और योगसार में भी इस प्रकार की उपदेश भावना दृष्टिगोचर होती है तथापि उनमें प्रधानता अध्यात्मचिन्तन की ही है । किन्तु इस ग्रंथ में प्रधानता उपदेश भावना की है। - ग्रंथ के आरम्भ में मंगलाचरण और दुर्जन स्मरण है। तदनन्तर श्रावक धर्म के भेद, सम्यक्त्व प्राप्ति के साधन, अनेक दोषों का परित्याग, रात्रि-भोजन निषेध, अहिंसा व्रत पालन आदि का विधान किया गया है। गृहस्थों को दान की महत्ता समझाते हुए धर्म पालन, इंद्रिय निग्रह, मन वचन और शरीर की शुद्धि, तथा उपवास व्रतादि पालन करते हुए पाप पुण्य के बंधन से छुटकारा पा कर कर्म नाश द्वारा सुख प्राप्त करने का आदेश दिया गया है । लेखक जैन धर्मावलम्बी था अतः उसने गृहस्थों को जिन भगवान की पूजा और जिन मन्दिरों के निर्माण का भी आदेश दिया है। ग्रंथ के आरम्भ में लेखक दुर्जनों का स्मरण करता हुआ कहता है
दुज्जणु सुहियउ होउ जगि सुयणु पयासिउ जेण ।
अमिउ विर्से वासरु तमिण जिम मरगउ कच्चेण ॥२॥ अर्थात् दुर्जन सुखी हो जिससे जगत् में सज्जन प्रकाश में आता है । जैसे विष से अमृत, अन्धकार से दिन और कांच से मरकत मणि।
लेखक धर्माचरण का उपदेश देता हुआ कहता है कि यह मत सोचो कि धन होगा तो धर्म करूँगा । न जाने यम का दूत आज आ जाय या कल।
"धम्मु करउं जइ होइ धणु इहु दुव्वयणु म बोल्लि ।
हवकारउ जमभडतणउ आवइ अज्जु कि कल्लि" ॥८८॥ धर्म से ही धन प्राप्त होता है--
"धम्म करतहं होइ धणु इत्थु ण कायउ भंति ।
जलु कड्ढंतहं कूवयहं अवसई सिरउ घडंति" ॥९९॥ अर्थात् धर्माचरण करने वाले को निस्संदेह धन प्राप्त होता है । कुएँ से जल निकालने वालों के सिर पर अवश्य घड़ा होता है। लेखक ने धर्म का लक्षण और उसका मूल कितना सुन्दर बताया है
"काइं बहुत्तइं जंपियइं जं अप्पहु पडिकूलु। V काई मि परहु ण तं करहि एहु जु धम्महु मूलु" ॥१०४॥
१. दर्शनसार के अतिरिक्त सभी ग्रंथ माणिक्यचन्द्र दिगंबर जैन ग्रंथमाला से प्रका
शित हो चुके हैं। २. सावयधम्म दोहा भूमिका पृ० १९.