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अपभ्रंश मुक्तक काव्य - १
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नागपुर, अजमेर आदि स्थानों में विहार किया । यह देश देश में अपना धर्मोपदेश करते रहते थे । सं० १२१० में अनशन समाधि द्वारा इन्होंने देहत्याग किया ।' उपदेश रसायन रास के अतिरिक्त, काल स्वरूप कुलक और चर्चरी की इन्होंने रचना की ।
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उपदेश रसायन रास ८० पद्यों की एक रचना है । आरम्भ में मंगलाचरण है । आगे लेखक कहता है कि आत्मोद्धार से मनुष्य जन्म सफल होता है । तदर्थं सुगुरु की आवश्यकता होती है । गुरु नौका के बिना संसार-सरिता को पार करना संभव नहीं । तदनन्तर धार्मिकों के कृत्यों का निर्देश है । अनेक प्रकार के चैत्य धर्मों और कर्मों का प्रतिपादन है । ३६वें पद्य में कृतिकार ने ताल रास और लगुड रास का निर्देश किया है । आगे युग प्रधान गुरु का और संघ का लक्षण दिया है। गृहस्थों को कुछ सदुपदेश दिये हैं । कृति के जल को जो कर्णाञ्जलि से पान करते हैं वे अजरामर होते हैं, इन वाक्यों से कृति समाप्त होती है ।
कवि के निम्नलिखित पद्य में अहिंसा का रूप देखिए
" धम्मिउ
साहंतउ ।
पर मारइ
जसं ।
तु वि तसु धम्म अस्थि न हु नासइ
परमपद निवसइ सो सासइ" ॥२६॥
धम्मकज्जु कीas
अर्थात् जो धार्मिक धर्म कार्य को सिद्ध करता हुआ कदाचित् किसी धर्म में विघात करने वाले को युद्ध करता हुआ मार देता है तो भी उसका धर्म बना रहता है वह नष्ट नहीं होता । वह व्यक्ति शाश्वत परम पद में वास करता है ।
निम्नलिखित पद्य में कृतिकार ने देवगृह में ताल रास और लगुड रास का निषेध किया है :
" उचिय थुत्ति थुयपाढ पढिर्जाह । जे सिद्धं तिहि सह संधिज्जह । तालारासु विदिति न रयणिहि दिवसि वि लउडारसु सहुं पुरिसिहि" ॥३६॥
कृति के प्रारम्भ में संस्कृत टीकाकार ने उल्लेख किया है कि यह उपदेश रसायन रास प्राकृत भाषा में लिखा गया है। यहां प्राकृत भाषा शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त तमझना चाहिये । ग्रन्थ की भाषा अपभ्रंश ही है ।
कृति में पद्धटिका - पज्झटिका- छन्द का प्रयोग हुआ है ।
९. वही, पृ० ६० २. श्रीमद्भिजिनदत्तसूरिभिः...
रासक श्च"
अपभ्रंश काव्यत्रयी पु० २९
प्राकृत भाषया धर्म रसायनाख्यो