________________
अपभ्रंश मुक्तक काव्य--२
३०१
इत्यादि विद्वानों ने इसकी प्रतिष्ठा को सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया । इन्होंने अपने अपने मत और सिद्धांतों का प्रचार किया । असंग ने ईसा की पांचवी शताब्दी के लगभग महायान में तन्त्र का आविर्भाव किया। धीरे धीरे महायान में तन्त्र, मन्त्र, बीजमन्त्र, धारणी, मंडल आदि का प्रवेश होता गया । तन्त्र के साथ साथ शक्ति - पूजा का भी आविर्भाव हो गया ।
हीनयान और महायान में मुख्य भेद है- बुद्ध और निर्वाण के स्वरूप के विषय में । हीनयान, बुद्ध, धर्म और संघ के त्रित्व में विश्वास करते हुए बुद्ध को धर्म का उत्पादक एक महापुरुष मानता है । महायान उसे अलौकिक पुरुष से ऊपर दैव-रूप में मानता है तथा बुद्ध, धर्म और संघ के स्थान पर धर्म, बुद्ध और संघ इस क्रम को उपयुक्त मानकर धर्म को या प्रज्ञा को प्रधानता देता है। उसके अनुसार धर्म-प्रज्ञा - नित्य है, यही सर्वोच्च लक्ष्य है । उस धर्म-प्रज्ञा को प्राप्त करने का उपाय बुद्ध है । धर्म प्राप्ति का यह उपाय इसी बुद्ध के द्वारा प्रसारित होता है । इसी प्रकार महायान में संघ का अर्थ बोधिसत्व - बोधिचित्त की प्राप्ति का प्रयत्न करने वाला - जीव हो गया ।
इसके अतिरिक्त हीनयान संसार के दुःखों से, जन्म मरण के बन्धन से छुटकारा पा जाने में ही सन्तुष्ट है । यही उसका निर्वाण है । उसका यह निर्वाण उस के लिए ही है । महायान लोक मंगल के लिए उस चित्त वृत्ति को पाना चाहता है जिसे बोधिचित्त कहा गया है और जिसे प्राप्त कर जीव उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है ।
क्रमशः निर्वाण के स्वरूप का प्रश्न उठा । निर्धाण क्या है ? नागार्जुन ने उसे शून्य बताया । शून्य से महायानी सन्तुष्ट न हो सके । मैत्रेय नाथ ने उसमें विज्ञान को भी मिला दिया । उनका विचार था कि शून्य में भी विज्ञान या चेतना बनी रहती है। इसी को विज्ञानवाद कहा गया और आगे चलकर इसी का नाम योगाचार पड़ा । विज्ञानवाद भी जनता को संतुष्ट न कर सका । माध्यमिकों का विचार था कि शून्य, न सत्, न असत्, न सदसत् और न सदसत् का अभाव है ।
बौद्ध धर्म की साधारण जनता निर्वाण के इस सूक्ष्म विचार को कैसे समझ सकती थी ? धर्म गुरुओं ने शून्य के लिए एक नए शब्द 'निरात्मा' का आविष्कार किया । निरात्मा का अर्थ है जिस में आत्मा लीन हो जाए । बोधिसत्व इसी निरात्मा में लीन हो जाता है और वहीं अनन्त सुख ( महासुख) में डूबा रहता है । इस प्रकार ८ वीं शताब्दी के लगभग शून्य में महासुखवाद का तत्व भी मिला दिया गया । निरात्मा शब्द स्त्रीलिंग में है अतः निरात्मा देवी मानी गई। उसी के आलिंगन में बोधिचित्त लीन रहता है । इस प्रकार महासुखवाद के परिणाम स्वरूप वज्रयान की उत्पत्ति हुई ।
१. बी. भट्टाचार्य -- ग्लिम्प्सस आफ व्रजयान, प्रोसीडिंग एंड ट्रांजेक्शन्स आफ दि थर्ड ओरियंटल कान्फ्रेन्स, मद्रास, दिसम्बर १९२४ ई०, पृ० १३० ।
२. बी. भट्टाचार्य -- इंडियन बुद्धिस्ट इकोनोग्राफी, सन् १९२४, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सटी प्रेस, भूमिका पृ० १७ ।