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भपभ्रंश-साहित्य अर्थात् गज, मृग, मधुकर, मत्स्य और शलभ अपने-अपने विषय में प्रसक्त ह । एक-एक इन्द्रिय-विषय में आसक्ति के कारण ये निरन्तर दुःख पाते रहते हैं। एक ही इन्द्रिय की विषय प्रसक्ति से सहस्रों दुःख प्राप्त होते हैं। जिसकी पाँचों इन्द्रियां विषयों की ओर उन्मुक्त हों उसकी कुशलता कहां ? ____ उपरिलिखित दोहों की भागवत पुराण के निम्नलिखित पद्य से तुलना कीजिये।
कुरंग मातंग पतंग मीना भुंगा हताः पंचभि रेव पंच । एकः प्रमादी स कथं न हन्यते
यः सेवते पंचभिरेव पंच॥ मनोनिग्रह के विषय में कवि कहता है
"जेणि न रुद्धउ विसय सुहि धावंतउ मणुमीणु । तेणि भमेवउ भव गहणि अपंतइ जण दीणु" ॥२८॥ "संजम बंधणि बंधि धरि धावन्तउ मण हत्थि ।
जइ का दिसि अहु मुक्कुल ता पाडिहइ अणत्थि" ॥२९॥ अन्तिम पद्य में संयम मंजरी का महत्व बतलाया गया है और महेश्वर सूरि के गुरु का निर्देश किया गया है।
समणह भूसण गय वसण संजम मंजरि एह । (सिरि) महेसर सूरि गुर कन्नि कुणंत सुणेह ॥३५॥
चुनड़ी' यह कृति भट्टारक विनयचन्द्र मुनि रचित है। विनयचन्द्र माथुर संघीय भट्टारक बालचन्द्र के शिष्य थे। चूनड़ी ग्रंथ ३१ पद्यों की एक छोटी सी रचना है । इसकी रचना कवि ने गिरिपुर में रहते हुए अजय नरेश के राज-विहार में बैठकर की थी। कवि के कालादि के विषय में कुछ निश्चित नहीं। पं० दीपचन्द्र पाण्ड्या ने जिस गुटके में से इसे संपादित किया था, उसका लिपि काल वि० सं० १५७६ है । अतः इस काल से पूर्व तो इस कृति की रचना निश्चित ही है । चूनड़ी के अतिरिक्त, कल्याणकरासु और णिर्झर पंचमी विहाण कथा भी विनयचन्द्र ने लिखीं।
चूनड़ी स्त्रियों के ओढ़ने का दुपट्टा होता है जिन्हें रंगरेज, रंग बिरंगी बेल बूटे छाप
१. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५०, संख्या १-२, पृ० १११;
जैन हि० सा० का संक्षिप्त इतिहास, पृ० ७०; अनेकान्त वर्ष, ५, किरण ६-७, पृ० २५७-२६१ पर दीपचन्द पाण्ड्या का लेख
-चूनड़ी ग्रंथ। २. अनेकान्त वर्ष ५, किरण ६-७ पृ० २६१ ।