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अपभ्रंश मुक्तक काव्य-१
२७७ धंधवालु मो जगु पडिहासइ ।
घरि अच्छंतु ण घर बइ दोसइ ॥१२२॥ वह ज्ञान भी व्यर्थ है जिससे आत्मज्ञान नहीं होता
"अक्खर चडिया मसि मिलिया पाढंता गय खीण । एक्क ण जाणी परमकला कहिं उग्गउ कहिं लीण" ॥१७३॥ "बहुयइं पढियइं मूढ पर तालू सुक्कइ जेण।
एक्कु जि अक्खरु तं पढहु सिव पुरि गम्मइ जेण" ॥९७॥ कबीर के निम्नलिखित दोहे से तुलना कीजिये
पढ़ पढ़ के सब जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
एकौ आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ॥ वही ज्ञान स्फुलिंग प्राप्त करना चाहिए जिसके संधुक्षित होने से पाप पुण्य जल जांय
"णाण तिडिक्की सिक्खि वढ किं पढियइं बहुएण।
जा संधुक्की णिड्डहइ पुण्णु वि पाउ खणेण" ॥८७॥ कवि तीर्थयात्रा, मूर्तिपूजा, मन्त्र तन्त्र आदि सब का निषेध करता है--
"तित्थई तित्थ भमेहि वढ धोयउ चम्मु जलेण । / एह मणु किम धोएसि तुहुं मइलइ पावमलेण" ॥१६३॥
"जो पइं जोइउं जोइया तित्थई तित्थ भमेइ ।
सिउ पई सिहं हहिंडियउ लहिवि ण सक्किउ तोइ" ॥१७९॥ अर्थात् हे जोगी ! जिसे देखने के लिए तू तीर्थ से तीर्थ घूमता फिरता है वह शिव तो तेरे साथ-साथ घूमता फिरा तो भी तू उसे न पा सका ।
"पत्तिय तोडि म जोइया फलहि जि हत्यु म वाहि । ___ जसु कारणि तोडेहि तुहं सो सिउ एत्थु चडाहि" ॥१६०॥ कवि ने पत्ती-फल तोड़ कर शिव पर चढ़ाने वालों पर व्यंग्य किया है। यदि शिव को पत्ती प्रिय है तो उस शिव को ही क्यों न वृक्ष पर चढ़ा दिया जाय ! कवि मन के आत्मलीन हो जाने में सबसे बड़ी पूजा समझता है
"मणु मिलियउ परमेसरहो परमेसर जि मणस्स । विणि वि समरसि हुइ रहिय, पुंज चडावसं कस्स" ॥४९॥ "भूढा जोवइ देवलई लोहि जाइं किया।
देह ण पिच्छइ अप्पणिय जहिं सिउ संतु ठियाई" ॥१८॥ मूर्ख ! मनुष्यों से निर्मित मन्दिरों को देखता है। अपने शरीर को नहीं देखता जहां शांत शिव स्थित है।
अपने को स्त्री और आत्मा को प्रिय मानकर एकाकार हो जाने की हलकी सी भावना निम्नलिखित दोहे में मिलती है
"हउं सगुणी पिउ णिग्गुणउ, जिल्लक्खणु णीसंगु । एकहिं अंगि वसंतयहँ मिलिहु ण अंगिहि अंगु" ॥१०॥