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अपभ्रंश मुक्तक काव्य--१
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होने की कल्पना ग्रन्थ में वर्तमान अनेक उल्लेखों से की जा सकती है।'
पाहुड शब्द का अर्थ जैनाचार्यों ने विशेष विषय के प्रतिपादक ग्रन्थ के अर्थ में किया है । कुन्द कुन्दाचार्य के प्रायः सभी ग्रन्थ पाहुड कहलाते हैं। पाहुड शब्द संस्कृत शब्द प्राभृत का रूपान्तर माना गया है, जिसका अर्थ है उपहार । अतः पाहुड दोहा का अर्थ "दोहों का उपहार” समझा जा सकता है।
विषय:-इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय भी अध्यात्म चिन्तन है । आत्मानुभूति और सदाचरण के बिना कर्म काण्ड व्यर्थ है । सच्चा सुख इन्द्रिय निग्रह और आत्म ध्यान में है। मोक्ष मार्ग के लिये विषय परित्याग आवश्यक है। तीर्थयात्रा, मूर्तिपूजा, मन्दिर निर्माणादि की अपेक्षा देहस्थित देव का दर्शन करना चाहिये। कुछ दोहों में रहस्य भावना भी मिलती है। __ लेखक कहता है कि आत्मा इसी देह में स्थित है किन्तु देह से भिन्न है और उसी का ज्ञान परमावश्यक है :
"हत्य अहळुहं देवली वालहं णा हि पवेसु।
संतु णिरंजणु तहिं वसइ णिम्मलु होइ गवेसु" ॥९४॥ यह साढ़े तीन हाथ का छोटा सा शरीर रूपी मन्दिर है । मूर्ख लोग इसमें प्रवेश नहीं कर सकते । इसी में निरंजन वास करता है। निर्मल हो कर उसे खोजो।
• "भिण्णउ जेहिं ण जाणियउ णियदेहहं परमत्थु ।
सो अंघउ अवरहं अंधयहं किम दरिसावइ पंथु" ॥२८॥ जब आत्मज्ञान हो गया तो देहानुराग कैसा?
"अप्पा बुज्झिउ णिच्चु जइ केवल णाण सहाउ ।
ता पर किज्जइ काई वढ तणु उप्परि अणराउ" ॥२२॥ आत्मातिरिक्त अन्य का ध्यान व्यर्थ है :
"अप्पा मिल्लिवि जग तिलउ मूढ म झायहि अण्णु ।
जिं मरगउ परियाणियउ तहु कि कच्चहु गण्णु" ॥७२॥ __ जिसने आत्मज्ञान रूपी माणिक्य को पा लिया वह संसार के जंजाल से पृथक् हो आत्मानुभूति में रमण करता है :
"जइ लद्धउ माणिक्कडउ जोइय पुहवि भमंत । ___बंधिज्जइ णिय कप्पडई जोइज्जइ एक्कत" ॥२१॥ विषयों का त्याग किये बिना आत्मानुभूति नहीं हो सकती अतः विषय त्याग आवश्यक है। विषय त्यागी ही परम सुख पाता है।
"जं सुह विसय परंमुहउ णिय अप्पा झायंतु । तं सुहु इंदु वि णउ लहइ देविहि कोडि रमंतु" ॥३॥
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१. वही भूमिका पृ० २७