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अपभ्रंश मुक्तक काव्य-१
२७३ गाथाओं की भाषा प्राकृत से प्रभावित है। छन्दों में स्रग्धरा और मालिनी नामक दो वर्णवृत्तों का भी प्रयोग किया गया है । इनकी भाषा भी प्राकृत से प्रभावित है।
योगसार' ___ इसका लेखक भी योगीन्द्र ही है। ग्रन्थकार ने निर्देश किया है कि संसार से भयभीत और मोक्ष के लिये उत्सुक प्राणियों की आत्मा को जगाने के लिये जोगिचन्द्र साधु ने इन दोहों को रचा (पद्य संख्या ३.१०८)। अन्तिम पद्य में ग्रन्थकर्ता के जोगिचन्द्र नाम का उल्लेख, आरम्भिक मंगलाचरण का सादृश्य, प्रतिपाद्य विषय की एकरूपता, वर्णन शैली • और अनेक वाक्यों तथा पंक्तियों की समानता से कल्पना की जा सकती है कि यह जोगि
चन्द्र परमात्म प्रकाश के रचयिता योगीन्द्र ही हैं। ___ योगसार का विषय भी परमात्म प्रकाश के सदृश ही है । लेखक ने बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा का स्वरूप बतलाते हुए परमात्मा के ध्यान पर बल दिया है । इसमें लेखक ने पाप पुण्य दोनों ही प्रकार के कर्मों के त्याग का आदेश दिया है। सांसारिक बन्धनों को और पाप पुण्यों को त्याग कर आत्म-ध्यान-लीन ज्ञानी ही मोक्ष को प्राप्त करता है। __ लेखक सब देवताओं को सम्मान की दृष्टि से देखता है। निम्नलिखित दोहों से इन की धार्मिक सहिष्णुता प्रकट होती है :
"सो सिउ संकर विण्हु सो, सो रद्दवि सो बुद्ध । सो जिणु ईसर बंभु सो, सो अणंतु सो सिद्ध" ॥१०५॥ "एवंहि लक्खण-लक्खियउ, जो पर णिक्कलु देउ ।
देहहें ममहि सो वसइ, तासु ण विज्जइ भेउ" ॥१०६॥ भाषा हृदय को स्पर्श करने वाली है । सीधी और सरल भाषा में सुन्दरता से लेखक ने भावों को अभिव्यक्त किया है । लेखक की रचना शैली और भाषा का ज्ञान निम्नलिखित पद्यों से हो सकता है :
V"पुण्णि पावइ सग्ग जिउ पावएं गरयणिवासु ।
बे छंडिवि अप्पा मुणइ तो लन्भइ सिव-वासु" ॥३२॥ जीव पुण्य से स्वर्ग को पाता है और पाप से नरक निवास को। जब वह दोनों का परित्याग कर आत्मा को जानता है तो शिव वास प्राप्त करता है।
“आउ गलइ णवि मणु गलइ णवि आसा हु गलेइ ।
मोहु फुरइ णवि अप्प-हिउ इम संसार भमेइ" ॥४९॥ आयु क्षीण होती जाती है न तो मन क्षीण होता है और न आशा ही । मोह स्फुरित होता है आत्महित नहीं। इस प्रकार जीव भ्रमण करता रहता है।
"जेहउ मणु विसयहं रमइ तिमु जइ अप्प मुह। जोइउ भणइ हो जोइयहु लहु णिव्वाणु लहेइ" ॥५०॥
१. डा० आ० ने० उपाध्ये द्वारा संपादित और परमात्म प्रकाश के साथ ही प्रकाशित।