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अपभ्रंश-साहित्य
सुअण पसंसइ कव्व मझु, दुज्जन बोलइ मन्द ।
अवसओ विसहर विस बभइ, अमिअ विमुक्कइ चन्द ॥ किन्तु कवि को पूर्ण विश्वास है कि दुर्जन उसका कुछ विगाड़ न सकेगा
बालचन्द विज्जावइ भासा, बुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा ।
ओ परमेसर हर शिर सोहइ, ई णिच्चइ नाअर मन मोहह । भागे कवि काव्य भाषा प्रयोग के विषय में कहता है"सक्कय वाणी वहुअ न भावइ, पाउँअ रस को मम्म न पावइ ।
देसिल वअना सव जन मिट्ठा, तं तैसन जम्पओ अवहट्ठा ॥" अर्थात् संस्कृत भाषा बहुतों को अच्छी नहीं लगती, प्राकृत रस का मर्म नहीं पा सकती। देशी (वचन) सब को मीठी लगती है, अतएव अवहट्ट (अपभ्रंश) में रचना करता हूँ।
इसके अनन्तर भृगी और भंग के संवाद या प्रश्नोत्तर रूप से कथा प्रारम्भ होती है। भृगी पूछती है-"संसार में सार क्या है ?" भृग उत्तर देता है--“मान पूर्ण जीवन और वीर पुरुष"। भृगी पूछती है-कि यदि वीर पुरुष कहीं हुआ हो तो उसका नाम बताओ। भृग वीर पुरुष के लक्षण बताकर राजा बलि, रामचन्द्रादि वीर पुरुषों का उल्लेख करता हुआ कीर्तिसिंह का भी निर्देश करता है । भूगी के मन में कीर्तिसिंह का चरित्र सुनने की इच्छा होती है और भृग उनका चरित्र वर्णन करता है । कीर्तिसिंह के वंश और पराक्रम के वर्णन के साथ-साथ प्रथम पल्लव समाप्त होता है।
दूसरे पल्लव में कवि बतलाता है कि किस प्रकार राजा गणेश्वर ने असलान नामक एक तुरुक को परास्त किया। असलान ने कपट से राजा गणेश्वर को मार दिया। राज्य में अराजकता छा गई। असलान ने अपने किये पर पछताते हुए राज्य कीर्तिसिंह को लौटाना चाहा। कीर्तिसिंह ने अपने पिता का बदला लेने की भावना से कुद्ध हो शत्रु द्वारा भिक्षा रूप में दिये राज्य को स्वीकार न किया और अपने पराक्रम से राज्य को जीत कर भोगने का निश्चय किया। वह अपने भाई के साथ पैदल जौनपुर गया । कवि ने राजपुत्रों की पैदल यात्रा का, जौनपुर यात्रा के बीच के मार्ग का, जौनपुर के बाजारों का और वहाँ की वेश्याओं का, मुसलमानों के उद्धत जीवन का और हिन्दुओं की दीन दशा का स्वाभाविक चित्र उपस्थित किया है।
तीसरे पल्लव में कीर्तिसिंह जौनपुर के बादशाह से मिल कर सारी कथा सुनाता है । बादशाह कुद्ध हो असलान के विरुद्ध सेना प्रयाण की आज्ञा देता है । सेना सजधज कर कूच कर देती है किन्तु सेना असलान के ऊपर आक्रमण के लिए न जा दिग्विजय के लिए पश्चिम की ओर चल पड़ती है । कीर्तिसिंह को निराशा हुई। सेना चारों ओर दिग्विजय करती रही । कीर्तिसिंह आशा में साथ लगे रहे । केशव कायस्थ और सोमेश्वर के सिवाय उनके सब साथी भी उन्हें छोड़ गये । कीर्तिसिंह ने फिर एक बार सुल्तान से प्रार्थना की। प्रार्थना स्वीकृत हो गई। सेना का मुंह पूर्व की ओर असलान के प्रति मोड़ दिया गया।