________________
अपभ्रंश-साहित्य
"मूढ़ा सयलु वि कारिमय भुल्लउ मं तुस कंडि । fra हिणिम्मल करहि रड़ घरु परियणु लहु छंडि ॥ १ ( २.१२८ )
अर्थात् हे मूढ़ जीव ! शुद्ध जीव के अतिरिक्त अन्य सब विषयादिक कृत्रिम, विनाशशील हैं । तू भ्रम से भूसे को मत कूट । निर्नल मोक्ष मार्ग से प्रेम कर । शीघ्र गृह परिजनादि को छोड़ |
२७०
योगीन्द्र देवकुल, देव, शास्त्र, तीर्थ, वेद, काव्य, सब को नश्वर मानते हैं । जो कुछ कुसुमित दिखाई देता है सब कुछ ( कालानल में ) ईंधन है...
“देउलु देउ वि सत्यु गुरु तित्थु वि वेउ
वच्छु जु दीसइ कुसुमियउ इंधणु होस " जे दिट्ठा सूरुग्गमणि ते अत्थवणि न तें कारण वढ धम्मु करि धणि जोव्वणि कउ तिट्ठ ॥ "
कव्व । सव्व ॥ २.१३०॥
(२.१३२)
मूर्ख ! सूर्योदय पर जो दिखाई देता है वह सूर्यास्त पर नहीं रहता । इस कारण धर्माचरण कर । धन में और यौवन में क्या तृष्णा ?
निम्नलिखित दोहे में विषयों की क्षणभंगुरता का सुन्दरता से प्रतिपादन किया है-J"विषय - सुई बे दिवा पुणु दुक्खहँ परिवाडि ।
विषय त्यागी की प्रशंसा करता हुआ कवि कहता है-
दिट्ठ ।
भुल्ल जीव म वाहि तुहुँ अप्पण खंधि कुडाडि ३ ॥२.१३८ ॥
"संता विसय जु परिहरइ वलि किज्जउँ हउँ तासु । सो दइवेण जि मुंडियउ सोसु खडिल्लउ जासु ॥२.१३९॥
संतो ! जो विषयों का परित्याग करता है में उस पर बलिहारी जाऊँ । जिसका सिर गंजा है उसका सिर भाग्य ने ही मूण्ड दिया ।
इसी अध्यात्म-चिन्तन में कवि ने नीति और सदाचार के उपदेश भी दिये हैं । . कुसंगति से बचने का ( २. ११०, ११४), मन को वश में करने का ( २. १४० ), क्रोध दूर रहने (२.१८६) आदि का आदेश दिया है।
योगीन्द्र के विषय प्रतिपादन में कहीं धार्मिक संकीर्णता नहीं दिखाई देती । विषयों की निस्सारता और क्षण-भंगुरता का उपदेश देते हुए भी कवि ने कहीं पर कामिनी, कांचन और गृहस्थ जीवन के प्रति कटुता प्रदर्शित नहीं की ।
१. तुलना कीजिये पाहुड़ दोहा संख्या १३. २. देखिये वही संख्या १६१.
३. तुलना कीजिये पाहुड़ दोहा संख्या १७.
भाषा-लेखक ने सरल भाषा में अनेक उपमाओं और दृष्टान्तों द्वारा भाव को सरल, सुबोध और स्पष्ट बनाया है । उपमा और दृष्टान्तों में उपमानों को सामान्य जीवन की