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अपभ्रंश-साहित्य
__ अर्थात् यौधेय नाम का देश ऐसा है मानो पृथ्वी ने दिव्य वेश धारण किया हो। जहाँ जल ऐसे गतिशील हैं मानो कामिनियाँ लीला से गति कर रही हों। जहाँ उपक्न कुसुमित और फलयुक्त हैं मानो पृथ्वी वधू ने नवयौवन धारण किया हो । जहाँ गौएँ और सें सुख भैंसे बैठी हैं जिनके धीरे-धीरे रोमन्थ करने से गंडस्थल हिल रहे हैं । जहाँ ईख के खेत रस से सुन्दर हैं और मानों हवा से नाच रहे हैं । जहाँ दानों के भार से झुके हुए पक्वशाली खड़े हैं। जहाँ शतदल कमल पत्तों एवं भौरों से सहित हैं। जहाँ तोतों की पंक्ति दानों को चुग रही है । . . . . . • जहाँ जंगल में मृगों के झुण्ड ग्वालों से गाये जाते गानों को प्रसन्न मन हो सुन रहे हैं।
इसी प्रकार पृष्ठ ४-५ पर कवि ने राजपुर का वर्णन किया है। इन सब वर्णनों में कवि ने मानव जीवन को अछूता नहीं छोड़ा। कवि की दृष्टि नगरों के भोग-विलासमय जीवन को ही ओर नहीं रही अपितु ग्रामवासियों के स्वाभाविक, सरल और मधुर जीवन की ओर भी गई है। ग्वालबालों के गीत, गौ-मैसों का रोमन्य, ईख के खेत, आदि दृश्य इसी बात की ओर संकेत करते हैं।
अवन्ती का वर्णन बड़ा सरस और स्वाभाविक है।
एत्यत्थि अवंतीणाम विसउ महिबहु भुंजाविय जेण विसउ। पत्ता-णवंतहि गाहिं बिडलारामहि सरवर कमलहिं लच्छिसहि ।
गलकल केकारहिं हंसहि मोरहिं मंडिय जेत्यु सुहाइ महि॥ जहि चुनचुमंति केयार कीर वर कलम सालि सुरहिय समोर ।
हुए। पिक्क---पक्व । सालि-अलि सहित, ममर युक्त। रिछोलि
पंक्ति । मय उल--मग कुल। १. घता-रायउरु मणोहरु रयणंचिय घर तहिं पुरवर पवणुखयहिं ।
चलचियहि मिलियहि णहयलि धुलियहिं छिवइ व सग्गु सयंभुअहिं॥ जं छण्णउं सरसहि उववर्णेहिं गं विद्धउं वम्मह मग्गणेहि । कयसहि कण्णसुहावरहिं कणइ व सुरहर पारावरहि । गय वर दाणोल्लिय वाहियालि जहिं सोहइ चिर पवसिय पियालि। सरहंसई जहिं णेउर रवेण मउ चिक्कमति जुवई पहेण। जं णिव भुया सि वर णिम्मलेण अण्णु वि दुग्गउ परिहा जलेण। पडिखलिय वइरि तोमर झसेण पंडुर पायारि णं जसेण । णं वेढिउ वहुसोभग्ग भारु णं पुंजीकय संसार सार। जहिं विलुलिय मरगय तोरणाइं चउदारइं णं पउराणणाई। जहिं धवल मंगलच्छवसराइं दुति पंचसत्त भोमइं घराई। णव कुंकुम रस छडयारणाइं विकिखत्त दित्त मोत्तिय कणाई। गुरु देव पाय पंकय वसाई जहिं सव्वइं दिव्वई माणुसाइं। सिरिमंतइं संतई सुत्थियाई जहिं कहिं पि ण दीसहि दुत्थियाई।