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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक)
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लग्गिर सायणि सत्य सरिच्छउ, कामुअ रत्ता करिसण वच्छउ । मेरु महीहर महि पडिविवउ, सेविय बहु कि पुरिस नियंवउ । नरवइ णीइ समाण विहोयउ, दूरुज्झिय अणस्थ संजोयउ । अहरे राउ पमाणु वि जहुं वट्टइ, पुरिस विसेस संगि न पयट्टइ।
९. १२ अर्थात् जहां विभुषित रूपवती वेश्या रूप्यक रहित (विरुवउ) मनुष्य को विरूप मानती है। क्षण भर देखा हुआ पुरुष (यदि धनी है तो) प्रिय सिद्ध होता है और निर्धन प्रगयी ऐसा माना जाता है जैसा जन्म से भी कभी नहीं देखा । नकुलोद्भव भी वह मणिका भुजंग के दंत और नखों से व्रणित होती है--अर्थात् वह वेश्या कुलहीन होती है और भुजंगों-विटों के दंत और नखों से विद्ध होती है। काम की दीपिका भी स्नेह-तेल-संग रहित होती है अर्थात् काम को उद्दीप्त करने वाली होती है और स्नेह से शून्य होती है । डाकिनी के समान रक्ताकर्षण में अर्थात् अनुरक्त कामुकों के आकर्षण में दक्ष होती है । मेरु पर्वत की भूमि के समान होती है जिसका नितंब-मध्य भागकिंपुरुषादि देव योनियों से या कुत्सित पुरुषों से सेवित होता है । वह नरपति की नीति के समान अनर्थ संयोग को दूर से छोड़ देती है । जिसके अधर में राग (अनुराग) होने पर पुरुष विशेष के संग में प्रवृत्त नहीं होती। ___ जहाँ कवि इस प्रकार की भाषा का प्रयोग नहीं करता वहां उसकी भावाभिव्यक्ति सुन्दरता से हुई है । निम्नलिखित गाथा और दोहे में नारी का सौंदर्य अधिक निरख सका है-- गाथा-एयाण बयण तुल्लो होमि न होमिसि पुण्णिमादियहो।
पिय मंडलाहिलासी चरइ व चंदायणं चंदो ॥२
४.१४
चलण छवि साम फलाहिलासी कमलेहि सूरकर सहणं ।
विज्जइ तवं व सलिले निययं चित्तण गल पमाणम्मि ॥३ अर्थात् इन सुन्दरियों के मुख के समान होऊँगा या नहीं यहीं विचारता हुआ विषमंडल का अभिलाषी पूर्णिमा का चन्द्र मानो चान्द्रायण व्रत करता है। उनके चरणों की शोभा की समता के अभिलाषी इन कमलों से, अपने को गले तक पानी में डाल कर और ऊपर सूर्य की किरणों को सहते हुए मानो नित्य तप किया जाता है। दोहा-जाणमि एक्कु जे विहि घडइ सयतु वि जगू सामण्णु।
जि पुणु आयउ णिम्मविउ को वि पयावइ अण्णु ॥ अथात् ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मा ने सामान्य संसार की रचना की। इन सुन्दरियों की रचना कोई अन्य ही प्रजापति करता है।
रस-ग्रंथ समाप्ति की पुष्पिका में कवि कहता है___ "इय जंबू सामिचारिए सिंगार वीरे महा कव्वे महाकइ देवयत्तसुय वीर विरइय