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अपभ्रंश-साहित्य
भाँति छीजती जाती है । पद्मश्री के हर्ष के समान समुद्रदत्त अपने देश निकल गया । बाला के दुर्भाग्य के समान प्रकाश महीतल पर स्थित हो गया।
कवि के विरह-वर्णन में केवल संताप मात्रा का ही वर्णन नहीं अपितु उस संताप के प्रभाव की व्यंजना भी कवि ने की है।
शृंगार के अतिरिक्त वीर रसादि अन्य रसों का काव्य में प्रायः अभाव ही है।
प्रकृति वर्णन--काव्य में प्रकृति के कुछ खंड चित्र कवि ने अंकित किये हैं। वर्णन नायक नायिका के कार्य की पृष्ठभूमि के रूप में उपलब्ध होते हैं। पद्मश्री युवावस्था में पदार्पण करती है। उसके और समुद्रदत्त के हृदय में पूर्वानुराग को उत्पन्न करने के लिए कवि ने वसंत मास का (२. ४) और अपूर्वश्री उद्यान की शोभा (२. ५) का वर्णन किया है। वर्णन में कोई विशेषता नहीं। परम्परानुसार अनेक वृक्षों के नाम दिये गये हैं। कोयल का कूकना, भौरों का गूंजना आदि कवि ने वर्णन किया है ।
इसी पकार पद्मश्री और समुद्रदत्त के विवाहानन्तर कवि सन्ध्या और चंद्रोदय का
वर्णन करता है।
पत्ता--उज्जोइउ भुयणु असेसु इ। गरुय - राय • रंजिय - हियउ ।
अत्थवण सिहरि रवि संठियउ। संझा - वहु उक्कंठियउ॥ अत्थमिउ दिवायरु संझ जाय । थिय कणय घडिय नं भुयण-भा। कमलिणि कमलुनिय-महुयरेहि । अंसुएहि रुएइ सकज्जलेहिं । सोआउरु मणि चक्काउ होइ। कउ मित्त विओउ न दुक्ख देइ । अंधारिय सयल वि दिसि विहाइ। किलिकिलिय-भूय-रक्खस - पिसाय । तम पसरिउ किपि न जणु विहाइ । जगु गम्भ वासि निक्खित्तु नाइ। वोहंत कुमुय वणु उइउ चंदु । कंदप्प महोसहि रुंद कंदु । वणि जेम मइंदहु हत्थि जूहु। नासेइ मियंकह तिम्व तमोहु । हरिणंक किरण विप्फुरिउ भाइ। गयणंगणु धवलिउ नं छुहाइ । निसि पढम पहरि उद्दाम कामि वासहरि कुमार मणाभिरामि। महमहिय बहल वर धूय गंधि पंचम्न कुसुममाला सुगंधि । रुणुरुणिय महुर रवि भमर लीवि पज्जालिय मणि मंगल पईवि ।
पउमसिरि सहिउ पल्लंकि ठाइ सहियणु आणंदिउ ख घरहु जाइ । घत्ता--नाणाविह करण विसेसेहि सुर सोक्खई माणेउँ कुमरु ।
आलिंगिउ कंत पसुत्तउ नाइ सविग्गहु पंचसरु ॥
इन वर्णनों में प्रकृति बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव से भी अंकित की गई है । इधर पद्मश्री का हदय अनुराग पूर्ण और पति मिलन के लिए उत्सुक है उधर गुरु राग रंजित सन्ध्यावधू उत्कंठित है । इन वर्णनों में कवि की कल्पना कहीं कहीं अनूठी और अद्भुत है। सन्ध्या समय कमल बंद होने को हैं उनमें से भौंरे निकल निकल कर उड़ रहे हैं। कवि कहता है मानो कमलिनी काजल पूर्ण अश्रुओं से रो रही है (३. १. ६)।