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अपभ्रंश-खंडकाव्य (लौकिक) . २५१ नाटकादि देखकर विस्मित हो रहे थे ।' ___वारवनिताओं के नृत्य वर्गन में भी स्वाभाविकता है । उद्यान वर्णन में अनेक वृक्षों
और वनस्पतियों के नामों की सूची कवि ने प्रस्तुत की है। इन वर्णनों में कोई विशेषता नहीं।
स्थूल प्राकृत वर्णनों की अपेक्षा कवि मानव हृस्य का वर्णन अधिक सुन्दरता से कर सका है। सारा काव्य विरहिणी के वियोगपूर्ण हृदय के भावमय चित्रों से परिपूर्ण है। ___ रस-काव्य में विप्रलम्भ शृंगार ही मुख्य रूप से व्यक्त किया गया है। विरहिणी के शरीर की अवस्था के वर्णन, उसकी शारीरिक चेष्टाओं के प्रकाशन और उसके हृदय के भावों के अभिव्यंजन द्वारा कवि ने उसके विरह का साक्षात् रूप अंकित किया है। ___ कवि विरहिणी की अवस्या का वर्णन करता हुआ शब्द-चित्र द्वारा उसका साक्षात् रूप हमारे सामने खड़ा कर देता है :
"विजय नयरहु कावि वर रमणि, उत्तंग थिर थोर थणि, बिरुड लक्क धयरट्ठपउहर। दीणाणण पहु. णिहइ, जलपवाह पवहंति दोहर । विरहग्गिहि कणयंगि तणु, तह सामलिम पवन्नु । णज्जइ राहि विडंबिअउ, ताराहिवइ सउन्नु । फुसद लोयण रुवइ दुक्खत्त, धम्मिल्ल उमुक्क मुह, विज्जंभइ अरु अंगु मोडइ । विरहानलि संतविअ, ससइ दोह करसाह तोडइ।२
(२. २४-२५) अर्थात्-विक्रमपुर की कोई सुन्दरी उन्नत, दृढ़ और स्थूल कुचवाली, बरे के समान कृशकटि वाली, राजहंस के समान गति वाली, दोनानना परदेश में गये अपने पति को देख रही थी । उसकी आँखों से दीर्घ जलावाह बह रहा था । कनकांगी का शरीर विरहाग्नि से श्यामल हो गया था, ऐसा प्रतीत होता था मानो संपूर्ण चन्द्रबिम्ब को राहु ने ग्रस लिया हो । वह आँखें पोंछ रही थी, दुःषात हो रही थी । केश उसके मुख पर बिखरे हुए थे और जंभाई ले रही थी। कभी शरीर मोड़ती थी । विरहाग्नि में संतप्त लम्बी-लम्बी आहे भर रही थी और कभी अंगुलियों को चटका रही थी।
१. नर अउव्य विभविय विविह नडनाडइहि
संदेश रासक, २.४६ २. विरुडलक्क--लक्क पंजाबी का शब्द है जिसका अर्थ कटि होता है। विरुड़भिरड, बर्रा या ततैया। कृशकटि के लिए इसका प्रयोग कई कवियों ने किया है । धयरट्ठ पउहर-धार्तराष्ट्र या राजहंस के समान पैर रखती हुई। सउन्नसंपूर्ण । कर साह--कर शाखा, अंगुलियाँ ।