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अपभ्रंश-साहित्य
वर्णन बाह्यवस्तु की ओर पाठक का ध्यान न ले जाकर विरह-कातर व्यक्ति के मर्मस्थल : की पीड़ा को अधिक व्यक्त करते हैं। कवि प्राकृतिक दृश्यों का चित्र इस कुशलता से अंकित करता है कि इस से विरहिणी के विरहाकुल हृदय की मर्मवेदना ही मुखरित होती है। वर्णन चाहे जिस दृश्य का हो, व्यंजना हृदय की कोमलता और मर्मवेदना की ही होती है। ___ अलंकार--भाषा में उपमा उत्प्रेक्षादि सादृश्यमूलक अलंकारों का ही अधिकता से प्रयोग हुआ है । अलंकारों की बहुलता नहीं। इन सादृश्यमूलक अलंकारों में सादृश्य योजना दो वस्तुओं के स्वरूप बोध के साथ-साथ भाव व्यंजना एवं भाव तीव्रता के लिए भी हुई है। उदाहरण के लिए___"विरहग्गिहि कणयंगितणु तह सामलिम पवन्नु ।
णज्जइ राहि विडंबिअउ ताराहिवइ सउन्न ॥" अर्थात् उस सुवणींगी का शरीर विरहाग्नि से ऐसा काला हो गया था मानो पूर्ण चन्द्रबिम्ब, राहु ने ग्रस लिया हो। इस वाक्य से कवि ने विरहिणी के शरीर की श्यामता की ओर निर्देश करते हुए उसके शरीर की शोभा की अत्यधिक क्षीणता की ओर भी संकेत किया है।
कवि ने सादृश्य योजना के लिए उपमानों का चयन जीवन के लौकिक व्यापारों से भी किया है । यथा___ "पिंडीर कुसुमपुंजतरुणि कवोला कलिज्जति ।"
२.३४ __ अर्थात् तरुणी के कपोल अनार के फूल के गुच्छों के समान शोभित थे। इस उपमान के चुनने में कवि पर फारसी साहित्य का प्रभाव प्रतीत होता है।
"सुन्नारह जिम मह हियर, पिय उक्किंख करेइ ।
विरह हुयासि दहेवि करि, आसाजलि सिंचेइ ॥ (२.१०८) अर्थात हे प्रिय ! मेरा हृदय सुनार के समान है । जैसे सुनार इष्ट प्राप्ति के लिए सोने को आग में तपा कर पानी में डाल देता है ऐसे ही मेरा शरीर विरहाग्नि से जलता है और प्रिय समागम के आशारूपी जल से सिक्त रहता है।
इसी प्रकार श्लेष (२.८६) और यमक (१.१०४, ३.१८३) के उदाहरण भी मिलते हैं।
भाषा :-इस काव्य में प्रयुक्त भाषा का रूप अधिकतर बोलचाल में प्रयुक्त होने वाली अपभ्रंश भाषा का रूप है । यह भाषा का रूप साहित्यिक (Classical) अपभ्रंश से भिन्न है। अपभ्रंश भाषा का उत्तर कालीन रूप, जिस पर प्रान्तीय भाषाओं का प्रभाव भी पड़ने लग गया था, इस काव्य में देखा जा सकता है।
भाषा में भावानुकूल शब्द-योजना हुई है। ग्रीष्म और पावस की प्रचण्डता एवं कठोरता
१. आचार्य डा० हजारी प्रसाद दिलो--हिन्दी-साहित्य का आदि काल, बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटा, वि० सं० २००९.