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अपभ्रंश-साहित्य
आसाजल संसित्त विरह उन्हत्त जलंतिय,
णहु जीवउ गहु मरउ पहिय ! अच्छउ धुक्खंतिय । (२.१०७) हे पथिक ! तुम प्रियतम से मेरी अवस्था का वर्णन मात्र कर देना--अंग-भंग, अरति, रात भर जगते रहना, आलस्य युक्त और लड़खड़ाती गति, इत्यादि ।
आशाजल से सिक्त और विरहाग्नि से प्रज्वलित मैं हे पथिक ! न तो जी ही पाती हूँ और न ही मर ही पाती हूँ । सुलगती आग के समान मेरी अवस्था है।
विरहिणी के लिए रातें भी और दिन भी बीतने कठिन हो गए। इसी भाव को कवि ने कितनी सुन्दरता से निम्नलिखित पद्य में अभिव्यक्त किया है :
"उत्तरायणि वढिहि दिवस, णिसि दक्षिण इहु पुव्व णिउइउ । दुच्चिय वड्ढहि जत्थ पिय,
इहु तीयउ विरहायणु होइयउ ॥ (२.११२) अर्थात् उत्तरायण में दिन बड़े हो जाते है, दक्षिणायन में रातें बड़ी हो जाती हैं और दिन छोटे हो जाते हैं। अब मेरे लिए दोनों दिन भी और रातें भी बड़ी हो गईं-यह तीसरा विरहायण हो गया। ___ इस प्रकार कवि ने विरह का संवेदनात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है। वर्णन में कहीं ताप मात्रा बताने का प्रयत्न नहीं। विरह-ताप हृदय को प्रभावित करता है। एक आध स्थल पर कुछ ऊहात्मक निर्देश भी कवि ने किये हैं। उदाहरण के लिए :
"संदेसडउ सवित्थरउ, हउ कहणह असमत्थ । भण पिय इकत्ति बलिण्डइ, बे वि समाणा हत्थ ॥ संदेसडउ सवित्थरउ, पर मइ कहणु न जाइ।
जो कालंगुलि मूडउ, सो बाहडी समाइ ॥ (२.८०-८१) अर्थात् हे पथिक ! मैं विस्तार से सन्देश देने में असमर्थ हूँ। प्रिय से कहना कि एक हाथ की चूड़ी में दोनों हाथ आ जाते हैं। सन्देश तो विस्तृत है पर मुझ से कहा नहीं जाता। प्रिय से कहना कि कनिष्टिका अंगुली की मुद्रिका बाहु में पूरी आने लगी।
प्रकृति वर्णन--कवि ने विरह वर्णन के प्रसंग में ही षड्-ऋतु-वर्णन प्रस्तुत किया है। विरहिणी को विरहताप के कारण ये सब ऋतुएँ दुःख दायिनी और अरुचिकर प्रतीत होती हैं। ग्रीष्म ऋतु में ताप को कम करने के लिए प्रयुक्त चन्दन, कर्पूर, कमल आदि साधन उसके ताप को और बढ़ाते हैं । वर्षा ऋतु में जल प्रवाह से सर्वत्र ग्रीष्म का ताप कम हो गया किन्तु आश्चर्य है कि विरहिणी के हृदय का ताप और भी अधिक बढ़ गया
"उल्हवियं गिम्हहवी धारा निवहेण पाउसे पत्ते।।
अच्चरियं मह हियए विरहग्गी तवबइ अहिययरो॥ (३.१४९) शरद् ऋतु में नदियों की धारा के साथ साथ विरहिणी भी क्षीण हो गई
"झिज्झउ पहिय जलिहि झिझतिहि"