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अपभ्रंश-साहित्य __ सौन्दर्य वर्णन--सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि ने उस विरहिणी सुन्दरी को 'कुसुम सराउहरूवणिहि' (२.३१) कहा है । अर्थात् वह काम का आयुध और सौन्दर्य की निधि थी। कवि इन विशेषताओं से नारी सौन्दर्य के हृदय पर पड़ने वाले प्रभाव की व्यंजना करना चाहता है । इससे पूर्व कालीन कवियों ने भी सुन्दरी को 'वम्मह भल्लि' आदि कह कर इसी भाव की व्यंजना की है।'
कवि ने नारी के अंग-वर्णन प्रसंग (२.३२-३९) में उसके केशपाश, निष्कलंक मुख, लोचन, कपोल, वाहु, कुच, नाभि, कटि, ऊरू और चरणों की अंगुलियों का वर्णन किया है। इस वर्णन में अधिकतर परम्परागत उपमानों का ही प्रयोग मिलता है। एक स्थल पर नखशिख वर्णन में कवि ने नारी के कपोलों को अनार के फूलों के गुच्छे से उपमा दे कर लौकिक जीवन से उपमान चुनने का प्रेम भी अभिव्यक्त कर दिया है । यद्यपि अंग-वर्णन में कोई विशेषता नहीं तथापि नारी के अंगों के सौन्दर्य का अतिशय प्रभाव निम्नलिखित छन्द में दिखाई देता है :
"सयलज्ज सिरेविणु पयडियाइँ अंगाई तीय सविसेसं । को कवियणाण दूसइ, सिटुं विहिणा वि पुणरुतं ॥"
२.४० अर्थात् विधाता ने शलजा-पार्वती को रच कर उसके समान या उससे भी सविशेष अंगों को पुनः इस स्त्री के शरीर में रचा। फिर कौन कवियों को पुनरुक्ति के लिए दोष दे जब विधाता ने स्वयं पूर्वसृष्ट की पुनः सृष्टि की? __इस पद्य से कवि ने नारी के अंग-सौन्दर्य के साथ-साथ उसके दिव्य रूप का भी आभास दिया है। - विरह वर्णन--कवि का विरह वर्णन संवेदनात्मक है, दय में विरहिणी के प्रति सहानुभूति जागृत करने वाला है । विरहिणी अपने प्रियतम को संदेश देती हुई लज्जा का अनुभव करती है :
"जसु पवसंत ण पदसिआ, मुइअ विओइ ण जासु ।
लज्जिज्जउ संदेसडउ, दिती पहिय पियासु ॥२.७०॥ अर्थात् जिसके प्रवासार्थ चले जाने पर में भी प्रोषित नहीं हुई और जिसके वियोग में मैं मर न गई हे पथिक ! उस प्रियतम को संदेसा देती हुई में लज्जित होती हूँ।
हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण ( ८. ४. ४१९ ) में भी इसी भाव का एक पद्य मिलता है :
"जउ पवसंते सहुं न गय न मुअ विओएं तस्सु । लज्जिज्जइ संदेसडादितेहिं सुहय-जणस्सु ॥
१. "णं वम्मह भल्लि विंधण सील जवाण जणि"
भविसयत कहा ५.७. ९.