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- अपभ्रंश-खंडकाव्य (लौकिक)
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विरहिणी के अंग-प्रत्यंग विरह प्रहार से संचूर्णित भी विघटित नहीं होते । कारण स्वयं विरहिणी बताती है कि आज या कल प्रियसंमिलन रूपी औषध के प्रभाव से।
"तुह विरह पहर संचरिआई विहडंति जंन अंगाई। तं अज्ज कल्ल संघडण ओसहे गाह तगंति ॥
(२. ७२) विरह की आग से जलती हुई भी विरहिगी प्रियतम की मंगल कामना चाहती है और कहती है कि:
___"जिम हउ मुक्की वल्लहइ, तिम सो मुक्क जमेण" अर्थात् जैसे मैं अपने प्रियतम से छोड़ दी गई वैसे ही मेरा प्रियतम यम से छोड़ दिया जाय।
विरहाग्नि से संत'त वियोगिनी मरना नहीं चाहती। कारण ? हृदय स्थित अपने f यतम की सहचरी उसका साथ छोड़ कैसे अकेली स्वर्गलोक में चली जाय (२.७५)? वह वियोगिनी प्रियतम के हृदय स्थित होते हुए भी विरह से सताये जाने पर प्रियतम की ही विडम्बना समझती है।
विरहिणी कहती है कि विरहाग्नि बड़वानल से संभवतः उत्पन्न हुई है क्योंकि ज्यों-ज्यों स्थूलाश्रुओं से सिक्त होती है त्यों-त्यों शान्त होने की अपेक्षा और भी अधिक भड़क उठती है--
"पाइय पिय वडवानलहु, विरहग्गिहि उप्पत्ति । ___ जं सित्तउ थोरंसुयहि, जलइ पडिल्ली झत्ति ॥ (२.८९) जैसे तैसे साहस कर वियोगिनी पथिक को संदेश देती है। हे पथिक ! प्रियतम से कहना :
"तइया निवडत णिवेसियाई संगमइ जत्थ गहु हारो।
इन्हिं सायर-सरिया-गिरि-तरु-दुग्गाइं अंतरिया ॥ (२.९३) अर्थात हे प्रिय ! पहिले तुम से गाढ़ालिंगन किये जाने पर इष्ट संगम के लिए मैंने कभी हार नहीं धारण किया । बीच में हार का भी व्यवधान असह्य था। अब मेरे और तुम्हारे बीच सागर, नदी, गिरि, तरु, दुर्गादि का व्यवधान हो गया है। इसी भाव का एक पद सुभाषित रत्न भाण्डागार और हनुमन्नाटक में मिलता है : __ "हारो नारोपितः कण्ठे मया विश्लेष भीरुणा।
इदानीमन्तरे जाताः सरित्सागर भूधराः ॥" विरहिणी अपने आपको प्रियतम के लिए उचित संदेश देने में असमर्थ पाकर पथिक से कहती है कि :
"कहि ग सवित्थर सक्कउ मयणाउह वहिय, इय अवत्थ अम्हारिय कंतह सिव कहिय । अंगभंगि णिरु अणरइ उज्जगउ णिसिहि, विहलंघल गय मग्ग चलंतिहि आलसिहि ॥ (२.१०५)