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अपभ्रंश-खंडकाव्य (लौकिक)
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जिसमें जो कान्य शक्ति है उसका उसे प्रकाशन अवश्य करना चाहिये । यदि चतुर्मुख ब्रह्मा ने चारों वेदों का प्रकाश किया तो क्या अन्य कवि कवित्व छोड़ दें।'
कवि की उत्थानिका से ही स्पष्ट होता है कि यह काव्य उसने सामान्य जनों के लिए लिखा है । आगे कवि स्पष्ट कहता है किः--
बुद्धिमान् इस कुकाव्य में मन नहीं लगायेंगे । मूों का अपनी मूर्खता के कारण इसमें प्रवेश नहीं। जो न मूर्ख हैं न पण्डित किन्तु मध्यश्रेणी के हैं, उनके सामने यह काव्य पढ़ा जाना चाहिये।
द्वितीय प्रक्रम से कया आरम्भ होती है। विजयनगर की एक सुन्दरी पति के प्रवास से दुःखी, दीन और विरह व्याकुल है । इतने में ही वह एक पथिक को देखती है। उसे देख विरहिणी उत्सुकता से उसके पास जाती है । दोनों का परिचय होने पर उसे पता लगता है कि पथिक सामोरु मूलस्थान (मुलतान) से आया है। कवि विरहिणी के सौंदर्य का वर्णन कर सामोरु नगर का और वहां की वारवनिताओं का वर्णन ( २.४६-५४) करता है। वहां के उद्यानों के प्रसंग में कवि ने वहाँ की वनस्पतियों की पूरी सूची दी है (२.५५-६४) । पथिक से यह जान कर कि वह खंभात जा रहा है विरहिणी व्याकुल हो उठती है। उसका पति भी वहीं गया है । वह पथिक के द्वारा अपने प्रियतम को संदेश भेजने के लिए तड़पने लगती है-संदेश भेजती है। संदेश बड़े संवेदना-पूर्ण शब्दों में दिया गया है। इस काव्य की एक विशेषता है कि संदेश-प्रसंग में कवि ने भिन्न-भिन्न छंदों का प्रयोग किया है । कभी विरहिणी एक छंद मे संदेश देती है कभी दूसरे में । जाते हुए पथिक को क्षण भर रोक कर तीसरे छंद में थोड़ा सा संदेश और दे देती है। विरहिणी के शब्द मार्मिक हैं और उसके हृदय की पीड़ा के द्योतक है। भिन्न-भिन्न छंदों में उसने मानो अपना हृदय पथिक के सामने उड़ेल दिया है । इसी प्रसंग में भिन्न-भिन्न ऋतुओं का कवि ने वर्णन किया है। विरहिणी का पति ग्रीष्म ऋतु में उसे छोड़ कर गया था उनी ऋतु से आरम्भ कर वर्षा, शरत्, हेमन्त, शिशिर और वसंत का भी वर्णन किया गया है । ये सब ऋतुएं विरहिणी के लिए दुःखदायिनी हो गईं।
__ अन्त में जब पथिक अपनी यात्रा पर चल पड़ता है विरहिणी निम्नलिखित शब्दों से अपना संदेश समाप्त करती है
"जह अणक्खर कहिउ मइ पहिय ! घण दुक्खाउन्नियह मयण अग्गि विरहिणि पलित्तिहि,
१. संदेश रासक, १.८-१७ २. गहु रहइ वुहा कुकवित्तरेसि,
अबुहत्तणि अबुहह गहु पवेसि । जि ण मुक्ख ण पंडिय मज्झयार, तिह पुरउ पढिन्वउ सव्वार ॥
सं. रा० १० २१.