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अपभ्रंश-साहित्य
प्रयोग भी कवि ने यत्र तत्र किया है । ग्यारहवीं सन्धि के प्रत्येक कडवक के आरम्भ में पहिले एक 'दुवई', फिर एक 'मात्रा' और तदनन्तर एक 'दोहय' (दोहा) का प्रयोग मिलता है । उदाहरणार्थ
चडिवि महारहि भड सहिउ, वइरिय माण मयंदु। अहिमहु चल्लिउ पर वलहो, सण्णज्झेवि गरेंदु ॥ दोहयं
दूसरी प्रति में दोहयं के स्यान पर 'दोहडा' शब्द का प्रयोग भी मिलता है।
पासणाह चरिउ (पार्श्वनाथ चरित) __ श्रीधर कवि के लिखे हुए पासणाह चरिउ, सुकमाल चरिउ और भविसयत्त चरिउ नामक तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं। तीनों ग्रन्थ अप्रकाशित हैं किन्तु इनकी हस्तलिखित प्रतियाँ आमेर शास्त्र भण्डार में विद्यमान हैं (प्र. सं. पृष्ठ १२९, १९३ और १५०)
श्रीधर अयरवाल (अग्रवाल) कुल में उत्पन्न हुए थे। इनकी माता का नाम बील्हा और पिता का नाम गोल्ह था। इन्होंने संभवतः चंदप्पह चरिउ की भी रचना की थी। कवि दिल्ली के पास हरियाना में रहते थे। इन्होंने ग्रंथ में स्वयं अपनी काव्य रचना के विषय में बताया है कि किस प्रकार में हरियाना से चल जमुना पार कर दिल्ली पहुंचा
और वहाँ अयरवाल (अग्रवाल) कुलोत्पन्न नट्टल साहु की प्रेरणा से काव्य रचना की । पासणाह चरिउ में 'ढिल्ली' प्रदेश का वर्णन भी किया गया है । इनकी कृतियों की रचना के आधार पर इनका काल लगभग वि० सं० ११८९ और १२३० के बीच अर्थात् विक्रम की १२ वीं शताब्दी का अंत और १३ वीं का मध्य माना जा सकता है। ___ कवि ने प्रथम सन्धि की समाप्ति पर और अन्य सन्धियों के प्रारम्भ में संस्कृत भाषा और संस्कृत छन्दों में नट्टल साहु की प्रशंसा भी की है । कृति की समाप्ति भी
१ विरएवि चंदप्पह चरिउ चारु, चिर चरिय कम्म दुक्खा वहार । विहरतें कोऊहल वसेण, परिहच्छिय वाष सरि सरेण । सिरि अयरवाल कुल संभवेण, जणणी वील्हा गम्भुवेण । अणवरय विणय पणयारहेण, कइणा वुह गोल्ह तणूरुहेण । पयडिय तिहुअणवइ गुण भरेण, मण्णिय सुहि सुअणे सिरि हरेण ॥
१.२
२. यस्याभाति शशांक सन्निन लसत्कीति र्द्धरित्री तले
यस्माद् वंदि जनो बभूव सकलः कल्याण तुल्योऽथिनां । येना वाचि वचः प्रपंच रचना हीनां (नं) जनानां प्रियं स श्रीमान् जयतात् सुधीरनुपमः श्री नट्टलः सर्वदा ॥ जीयादसौ जगति नट्टल नामधेयः ६.१
२.१