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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक)
२२५ अधिक प्रस्फुरित हो सका है। प्रेम के श्रृंगार पक्ष के अतिरिक्त वियोग का भी वर्णन मिलता है अतएव कथा में कुछ स्वाभाविकता आ गई है । ग्रंथान्तर्गत काव्यमय वर्णनों में ऋतुओं का वर्णन' विशेष आकर्षक है। कवि प्रातः काल का वर्णन करता हुआ कहता है"तपणु वियलिर तिमिर धम्मिलु परिल्हसिर तारय वसण
कलयलंत तरु सिहर पक्खिय । परिसंदिर कुसुम-महु-बिंदु मिसिणएं पइ वड्डक्खिय ।
हरिय तारय-रेणु-नियरं मिअइ निप्पहे दोसयरे, निम्मलं मि
____ गयणयले चड्डिउ । रवि रेहइ कणयमउ-मंगलज्जुनं कलसु मंडिउ । भमरा धावहिं कुमइणिउ उब्भिवि कमलवणेसु, कस्सव कहिं पडिबंधु जगे चिरपरिचिय-गणेसु। विरह विहुरिय चक्कमिडणाई मिलिऊण साणंद, हुय तुट्ठ भहिं पहियण महियले। कोसिय-कुलु एक्कु परिदुहिउ रविहिं आरूढे नहयले ॥
(७ वी सन्धि) निम्नलिखित वसंत-वर्णन में भी अलंकृत, और साहित्यिक परंपरागत बाण की वर्णन शैली के दर्शन होते हैं"जहि पवालं कुरेहि कयसोह डिभाई व तिलयकय गाय
महिम कामिणि मुहाई 'व। बहु लक्खण चित्त-सय मणहराई नर-वइ-गिहाई 'व। उत्तिम जाइ प्पसवकय-महिमंडणाई वणाई विलसइं भुवणाणंदयर, नं नरनाह कुलाई॥ जहिय विज्ज सिय कुसुम कणियार-वणराइ कंचण मय व कुणइ
पहिय हिययाण विभमु। अहिकखहिं भवणयले सयल मिहुण निय-दइय-संगम् । गिर्हि रासहिं चच्चरिउ, पेज्जहिं वर महराउ । माणिज्जहिं तुंगत्थणिउ, किज्जहिं जल-कोलाउँ ॥
(वही सन्धि ४) कवि का नारी-सौन्दर्य वर्णन देखिये
जीए रयणिहि तणु किरणमालच्चिय दीव सिव सोह मेतु मंगल पईवय । सवणाण विहुसणइँ नयणकमल विइ मेत्त मेवय ।
१. सनत्कुमार चरित--पद्य ५३८-५५०.