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अपभ्रंश - खंडकाव्य (धार्मिक)
कवि चन्द्रलेखा का वर्णन करता हुआ कहता है
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सुहलग्ग जोइ वर सुहण खत्ति, सुउवण्ण कण्ण ण्णं कांम यत्ति । कम पणि कवल सुसुवण्ण देह, तिहं गांउ धरिउ सुमइंक लेह । कमि कमि सुपवड्ढइ सांगुणाल, दिग मिग सवित्तु मराल वाल । रूव रइ दासि व णियडि तासु, किं वण्णमि अमरी खयरि जासु । लछी सुविलछो तोह दिति, तिहं तुल्लि ण छज्जइ बुद्धि कित्ति ।
१. ३
चन्द्रलेखा की आँखें मृग की आंखों के समान, वक्त्र चंद्र के समान और चाल हंस के समान थी । उसके निकट रति दासी के समान प्रतीत होती थी फिर अमरांगना या विद्याधरी उसके सामने कैसी ? इसकी तुलना किस से की जाय ?
अन्त में दी हुई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि ने इस ग्रंथ की रचना हिसार में की थी ।
ग्रंथ की भाषा खिचड़ी है । पद्धड़ी बंध में अपभ्रंश, दोहा सोरठा आदि में हिन्दी और गाथाओं में प्राकृत दृष्टिगत होती है ।
देखिये – पद्धडी पथडी
रोवइ व संतपरि यणं णारी आईई णांह हा रोइवि सूई मुअ सं कारु करिवि सज्जण
दोहा --
सोरठा
गाया-
सपत्ति, खणीधाह पमिल्लाह अद्धरति । णांह, हा कह गउ सामिय करि अणांह । कंतु, हा कोण वि यांगइ सम्म अंतु । जणेहि, मिलि सयल जलंजलि तासु देहि ।
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एक अंग को जलु मूरिषु मांनड़ नही,
नेहड़ा, भूलि करउ मति कोइ । मनुं मरइ तनु खोइ ॥ १.४२
संपति विपति विजोगु, हरिषु विषादु रु सोगु,
रोगु भोगु भावी उदइ । समां न चलई तिहं तगडं ॥१.१३
१.२
२.
इय जंपिय पउमाए,
परिवार णिवारणाय पुणरुतं ।
अवगणिय सहि सहिया, गिहाउ णिव्वासिया एसा ॥२.१ इस काल तक अपभ्रंश भाषा का क्या रूप हो गया था इसका ज्ञान ऊपर के उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है ।
भाषा की दृष्टि से निम्नलिखित दो दोहों का स्वरूप देखिये --
जो चुक्का गुण संपदा, चुक्का कित्ति मुहाउ । जो जण चुक्का सील तें, चुक्का सयल सुहाउ ॥