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अपभ्रंश-साहित्य
विवाह के पश्चात् वे दोनों कुछ काल सुखपूर्वक रहते हैं, तदनन्तर जिनदत्त धनोपार्जन की इच्छा से व्यापार करने के लिए अनेक वणिकों के साथ समुद्र यात्रा करता हुआ सिंहल द्वीप पहुँचता है । वहाँ के राजा की सुन्दरी राजकुमारी श्रीमती उससे प्रभावित होती है । दोनों का विवाह होता है । जिनदत्त श्रीमती को जिनधर्म का उपदेश देता है । कालातर में जिनदत्तप्रभूत धन-संपत्ति उपार्जित कर अपने साथियों के साथ स्वदेश लौटता है । ईर्ष्या के कारण उसका एक संबंधी धोखे से उसे समुद्र में फेंक देता है और स्वयं श्रीमती से प्रेम का प्रस्ताव करता है । श्रीमती पति-प्रेम में दृढ़ रहती है । वे चंपा नगरी पहुँचते हैं । श्रीमती चंपा में एक चैत्य में पहुँचती है। जिनदत्त भी भाग्य से बच जाता है और मणिद्वीप पहुँच कर श्रृंगारमती से विवाह करता है । वहाँ से कपट वेश में वह चम्पा नगरी पहुँचता है । वहाँ श्रीमती विमलवती की सब से भेंट होती है और जिनदत्त उनके साथ अपने घर वसन्तपुर पहुँचता है। माता पिता की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता । जिनदत्त सुखपूर्वक समय बिताता हुआ अन्त में समाधिगुप्त नामक मुनि से धर्मं में दीक्षित होता है । तपस्या करता हुआ शरीर त्याग के अनन्तर निर्वाण प्राप्त करता है ।
धर्म के आवरण से आवृत एक सुन्दर प्रेम कथा का कवि ने वर्णन किया है। चित्र में विमलमती के सुन्दर रूप को देख कर जिनदत्त और विमलमती का विवाह होता है । कथानक अन्य कथानकों के समान अनेक अलौकिक घटनाओं से युक्त है । उदाहरण के लिए श्रीमती के पेट में एक विषधर सर्प का होना। उसके सो जाने पर वह सर्प निकल कर श्रीमती के अनक प्रेमी राजकुमारों की जीवन लीला समाप्त कर देता था । जिनदत्त ने उस सर्प को मारा। सिंहलद्वीप में जाकर किसी सुन्दरी राजकुमारी से विवाह करने और प्रभूत धन संपत्ति प्राप्त कर लौटने की कथा उत्तर काल में जायसी की पद्मावती मैं भी मिलती है । सम्भवतः यह कथा चिरकाल से चली आ रही थी ।
स्थल-स्थल पर सुन्दर वर्णन मिलते हैं। अंतिम संधियाँ काव्यगत सरता से रहित हैं ।
कवि ने निम्नलिखित जिन वन्दना से ग्रंथ का आरम्भ किया है
ॐ नमो वीतरागाय ।
सप्पय सर कल हंसहो, हिय कल हंस हो, कलहंसहो सेयंसवहा । भणमि भुवण कल हंसहो, णविवि जिणहो जिणयत्त कहा ॥' अर्थात् मोक्ष सरोवर के मनोज्ञ हंस, कलह के अंश को हरण
करने वाले, करि
--हृत कलह
१. पद्य की निम्नलिखित संस्कृत टिप्पणी दी गई है-सप्पय. ...... - मोक्ष सर मनोज्ञ हंसस्य । हिय कल... स्यांशो येन । कलहंसहो... -- कलभस्य च करि पोतकस्य चांशौ यस्य तस्य कलभांशस्य करिशावकवदुन्नतस्कंध स्येत्यर्थः । भुवण कल... - कलो मनोज्ञो हंस आदित्य इव सं तस्य । रजो अज्ञान लक्षणं तस्य याः कलाः तासां भ्रंश यस्मात् तस्य ।