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अपभ्रंश-साहित्य
रिति सरे सारसाकं णं पुरहों पर सर सा रसमं ।
परममय मय वारणाइ, बेबुल सिरि गय मय वारगाई 4. अवि. गयमय वारणाइं, जह अरिवर गयमय वा रमाई ॥ १. १३.
अमवा समदा अपि रणरहिमानि नारी-वर्णन में कवि की दृष्टि नारी के बाह्यरूप तक ही सीमित न रही। सौंदबं का प्रभाव भी कवि ने अंकित किया है । शरीर की सुकुमारता, कोमलता और मधुरता की व्यंजना कवि ने कोमल और मधुर पदाबली द्वारा की है । कवि का विमलावती वर्णन खिये
दुहरहिय विमलाइमइ कण्ण, कमणीय कुंडल अलक्कंत वरकष्ण । वित्त संतविय सोवण्ण सुपहाल, पिछंत जणमोहणो सहि व णेहाल । लवंत वेणी लया लंकरिय पिट्ठि, चेलंचला चारु चल हार लय सिट्ठि । सेलिध परिमल मिलंतालि संदोह, वियलंत गंडाउ सेयंवु विदोह । कंबहूं घडियव्व पडिमेव सोहंति, वहु गेय कल कुसल मुणिमणु व मोहंति । बहुगुमा अहि परि परपुट्ठि सम वाय, कि एक्क जीहाए वष्णियइ वणिराय ॥
२. ७.
नारी के शारीरिक सौंदर्य का अंकन करते हुए भी कवि ने वासनाजनक श्रृङ्गार कम उपस्थित नहीं किया है । 'मुणि मणु व मोहंति' पद द्वारा शारीरिक सौंदर्य हाय पर पड़ने वाले प्रभाव की भी व्यंजना की गई है ।
मनि के प्राकृतिक वर्णन भी परंपरागत शैली से युक्त हैं । कवि ने चन्द्रोदय पर पारों ओर छिटकती हुई चन्द्रिका का भ्रान्तिमान् अलंकार से समन्वित वर्णन प्रस्तुत
१. कमल कल सालि सा लि--कमल और मधुर शालि धान्य भ्रमर सहित थे । कलसा लि सालि -- शाला में द्वार-द्वार पर कलशों की पंक्ति थी । सुअ सारि सारि-- शुक सारिका और हंस । सोहार -- सहाधार । सतार तार-शुभ्र चंचल और रुक्म । सकंत कंत--प्रिय के साथ और मनोज्ञ । संत - शान्त । साहि शाखी, वृक्ष । सयल -- सजल और शोभायमान । वाल -- बालक, अज्ञानी । गोवालह-ग्वाले, राजा । सरसि - जल में । सरे— सरोवर में । सर-- स्वर, शब्द । वारणाइं-- गवाक्ष । गय मय वारणाई - सिंह । गयमय वारणाइं-- राजद्वार पर मदोन्मत्त हाथी । गयमय वारणाइं--मद रहित या मदोन्मत्त भी शत्रु रणरहित थे ।
२. कण्ण – कन्या । वर कण्ण-सुन्दर कान । उद्दित्त संतविय—उद्दीप्त और तपाया हुआ । सेयंवु विदोह - प्रस्वेद जल कणों का समूह । परपुट्ठि सम वाय- कोयल के समान वाणी ।