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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक)
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आपको चार भाषाओं में निपुण कहा है। ये चार भाषायें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशी ही हो सकती हैं। कवि ने यद्यपि काव्यारम्भ में विनय प्रदर्शित करते हुए अपने आपको तक, छन्द, लक्षण, समास, सन्धि आदि के ज्ञान से रहित बतलाया है तथापि कवि स्वभाव से अभिमानी था। अपनी काव्य-प्रतिभा का उसे गर्व था। पंद्रहवीं सन्धि के आरम्भ में दिये एक पद्य से यह बात पुष्ट होती है। कवि गुर्जर वंश में उत्पन्न हुआ था और उस वंश में सूर्य के समान था (गुज्जर कुल णह उज्जोय भाणु) । सिंह अमृत चन्द्र के शिष्य थे। ___ काव्य में सन्धियों की पुष्पिकाओं में सिंह और सिद्ध दोनों नाम मिलते हैं। प्रथम आठ सन्धियों की पुष्पिकाओं में सिद्ध और अन्य सन्धियों की पुष्पिकाओं में सिंह मिलता है। अतः कल्पना की गई कि सिंह और सिद्ध एक ही व्यक्ति के नाम थे। वह कहीं 'अपने आपको सिंह और कहीं सिद्ध कहता है । यह भी कल्पना की गई कि सिंह और सिद्ध नामक दो कवियों ने रचना की । यही अनुमान अधिक संगत प्रतीत होता है क्योंकि काव्य के प्रारम्भ में सिद्ध के माता पिता के नाम और आगे सिंह के पिता का नाम भी भिन्न मिलता है। पं० परमानन्द जैन का अनुमान है किसिद्ध कवि ने प्रद्युम्न चरित्र का निर्माण किया था। कालवश यह ग्रन्थ नष्ट हो गया और सिंह ने खंडित रूप से प्राप्त इस ग्रन्थ का पुनः उद्धार किया। प्रो०) हीरालाल जैन का भी यही विचार है । इसकी पुष्टि एक हस्तलिखित प्रति में ग्रंथ की अन्तिम पुष्पिका से होती है जिसमें सिद्ध और सिंह दोनों का नाम दिया हुआ है। पज्जुण्ण
१. यत्र श्री जिन धर्म कर्म निरतः शास्त्रार्थ सर्व प्रियः
भाषाभिः प्रवणश्चतुभिरभवत् श्री सिंह नामा कविः ।
पुत्रो रल्हक पंडितस्य मतिमान् श्री गुर्जरागोमिह ___ इष्ट ज्ञान चरित्र भूषित तनुः विस्पे विशाले वनौ ॥ प० च० १३.१ २. साहाय्यं समवाप्य नात्र सुकव प्रद्युम्न काव्यस्य यः कर्ताभूद् भव भेदनैक चतुरः श्री सिंह नामः समां साम्यं तस्य कवित्व गर्व सहितः को नाम जातो वनौ
श्रीमज्जैन मत-प्रणीत सुपथे सार्थ प्रवृत्तिं क्षमः॥ १५.१ ३. इय पज्जुण कहाए, पयडिय धम्मत्थ काम मोक्खाए,
कइ सिद्ध वि रइयाए पठमो संधी परिसमत्तो। इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय धम्मत्थ काम मोखाए वुहरल्हण सुव कइ सीह विरइयाए णवमो संधी परिछेऊ समत्तो। ४. पं० परमानन्द जैन-महाकवि सिंह और प्रद्युम्न चरित, अनेकान्त वर्ष ८,
किरण १०-११, पृ० ३९१, ५. नागपुर युनिवर्सिटी जर्नल, सन् १९४२, पृ० ८२-८३ ६. इति प्रद्युम्न चरित्रं सिद्ध तथा सिंह कवेः कृतं समाप्तं ।