________________
२१८
अपभ्रंश-साहित्य
उनका हदय विक्षुब्ध हो उठा और उसकी प्राप्ति की प्रबल इच्छा करने लगे। स्वयंवर में सुलोचना ने जय को चुना। परिणामस्वरूप चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति क्रुद्ध हो उठा और उसने इसमें अपना अपमान समझा। अपने अपमान का बदला लेने के लिए अर्ककीर्ति और जय में युद्ध होता है और अन्त में जय विजयी होता है।
ग्रंथ का आरम्भ कवि ने पंच नमस्कार से किया है । तदनन्तर जिन स्तवन करता हुआ अपने गुरु विमलसेन का स्मरण करता है (१.३)। अपने से पूर्वकाल के अनेक उत्कृष्ट कवियों के काव्यों के होते हुए भी अपने काव्य के लिखने का प्रयोजन बताता है।
जइ कप्पदुमु फलइ मणोहरु, तो किं फलउ जाहि अवर वि तरु। जइ पवहइ सुरसरि मंथर गइ, तो कि अवर जाहि पवहउ पाइ॥
इसके अनन्तर कवि ने आत्म विनय प्रदर्शित करते हए (१. ४) सज्जन-दुर्जन स्मरण किया है--
चंदण वयणु कुठारहं केरउ, करइ सुयंधु सुच्छय जणेरउ।।
उछ दडू पोलिवि ताविउ, तो वि तेण महुरत्तणु क्षविउ ।। १.५ काव्य में मगध, राजगृहादि के काव्यमय वर्णन उपलब्ध होते हैं। शृङ्गार, वीर इत्यादि रसों की भी उपयुक्त व्यंजना की गई है। संधि की पुष्पिकाओ में कवि ने अपने ग्रंथ को महाकाव्य कहा है।' __कवि ने नारी वर्णन में परंपरागत उपमानों का प्रयोग किया है। जैसे चेल्लना महादेवी का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
चलणइं अइरत्तइं कोमलाइं, सोहंति णाई रत्तुप्पलाई। उरू जुवलउ तहि केम भाई, मणहरण व रंभा खंभणाई। कडियलु विसालु रइ सुहणिहाणु, णं मयण णिवहो आवासठाणु । तहि थण तुंग तें मझु खीण, णं सुयणहो रिद्धिए पिसुणु झीणु । जिरुवमउं जाहिं भुय डालियाउ, ललियउं गं मालइ मालियाउ। गल कंदलु समु कोमल विहाइ, वठ्ठलु वरयोप्फलि कवुणाइ।
(सद्दलु सर कोकिल कंछु णाइ)। तहि अहरु पवठ्ठलु सरसु रत्तु, णं पिक्कउ विवीहलु पवित्तु । णयण इंदीहरु कसुणुज्जलाई, णं वम्महं कंडई पत्तलाई।
अलयावलि तहो भाल यलिदिट्ठ, णं णव सय दलि छप्पय वइट्ठ । घत्ता
जित्तउ मुह सोहाए, जेण तेण सकलंकउ। लज्जए जाइ विदूरि, णहयलि थक्कु ससंकउ ॥ १. १२
१. इय सुलोयणा चरिए महाकव्वे, महापुरा हिट्ठिए, गणि देवसेण विरइए
......... इत्यादि।