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अपभ्रंश-साहित्य __ अलंकार--काव्य में अलंकारों का प्रयोग भी मिलता है । शब्दालंकारों में अनुप्रास और श्लेष, अर्थालंकारों में उत्प्रेक्षा, व्यति रेक, रूपक आदि सादृश्यमूलक अलंकार ही अधिकता से कवि ने प्रयुक्त किये हैं। इन सादृश्यमूलक अलंकारों में सादृश्य-योजना वस्तुस्वरूप-बोध के लिए नहीं अपितु भावों को उद्बुद्ध करने के लिए की गई है। निम्नलिखित अलंकारों के उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो सकेगी। "भय-वुन्न हरिणि जिह विट्ठ-सीह" ।
१.१३.७१ धनश्री ऐसी हरिणी के समान थी जिसने सिंह को देखा हो और भयाकुल हो । "आहरण-विवज्जिय विगय-हार उच्चिणिय-कुसुम नं कुंद-साह।"
१. १४. ७६ आभरण-रहित और हार-शून्य धनश्री ऐसी कुन्द-शाखा के समान थी जिस पर से सब फूल बीन लिये गये हों। "सरि नलिणि जेम जल-वज्जिय रत्ति-वियह परिसुक्कइ।"
___३. ३. ४३ समुद्रदत्त की माता जल-रहित सरोवर में दिन-रात सूखती हुई नलिनी के समान थी। "दोउन्ह मुयइ नीसास केव घण-सलिल-सित्तु गिरि गिम्ह जेस"
२.१४. ६६ समुद्रदत्त के अभाव में पद्मश्री ऐसे दीर्घ निःश्वास छोड़ रही थी जैसे ग्रीष्म में घन जल से सिक्त पर्वत ।
निम्न लिखित उत्प्रेक्षा में कवि की कल्पना नवीन और अद्भुत है। "कमलिणि कमलुनिय-महुयरेहि अंसुएहि रुएहि सकज्जलेहि" १ ३.६
सन्ध्या समय बंद होते कमलों से निकलते हुए भ्रमरों के कारण कमलिनी ऐसी प्रतीत होती थी मानो काजलयुक्त आँसुओं से रो रही हो।
इसी प्रकार रूपक (१. ३. ३४-३८) और व्यक्तिरेक (१. ६. ७९-८०) के उदाहारण भी काव्य में मिलते हैं ।
जिस प्रकार भाषा में कवि ने प्राचीन संस्कृत-प्राकृत-कवियों की परिपाटी को नहीं अपनाया उसी प्रकार अलंकारों में भी उस शैली का अभाव ही है। उपमा अलंकार
चौक पूरा (२.१८.२००); जालेवि-जलाकर (२.२१.४६); लड्डुयहं-- लड्डू (३.४.५४); माइ बप्पु सासुय ससुरउ (३.७.९१); नक्कु कन्ननाक कान (३.७.९६); सुक्क-शुष्क; (४.१०.२८); खीर खंड घिय वंजणेहि-खीर, खांड, घी, व्यंजन (४.७.८६); पोएइ तटु कंतिमइ हार-कांतिमती टूटे हार को पोती है (४.८.९२); भरिउ लड्ड्यहं थालु -लड्डुओं से भरा थाल (४.९.३) इत्यादि।