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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) मई आसि वरायउ रमणु परायउ कि हियउ॥ हा दइव परम्मुह दुण्णय दुम्मुहु तुहुं हुयउ । हा सामि सलक्खण सुटठ्ठ वियक्खण कहिं गयउ । महो उवरि भडारा णरवर सारा करुण करि । दुहु जलहिं पडती पलयहो जंती णाह धरि ॥ हर णारि वराइय आवई आइय को सरउं। परि छंडिय तुम्हहिं जीवमि एवहिं कि मरउं॥ इय सोय विमुद्धई लवियउ सुद्धइं जं हियई। हउं बोल्लिसु तइयहुं. मिलिहइ जइयहुं मझु पहि।'
७.११.-१८ छंद की योजना द्वारा कवि ने नारी-विलाप की ध्वनि को कर्ण गोचर कराया है।
वियोग-वर्णन में शरीर-ताप की मात्रा को सूचित करने वाले ऊहात्मक प्रसंगों का अभाव है । अनुभाव के प्रयोग से वियोग दृश्य के प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया गया है। रति वेगा के शब्दों से पाटक उसके हदय के साथ सहानुभूति का अनुभव करता है । सारा वर्णन संवेदनात्मक है। कवि ने वियोगजन्य दुःख के हदय पड़ने वाले प्रभाव को अंकित करने का प्रयास किया है। रति वेगा की आभ्यान्तर स्थिति का वाह्य जगत् में प्रतिबिम्ब भी, ऊपर के घत्ता में, स्पष्ट दिखाई देता है।
मदनावली के विलुप्त हो जाने पर करकंड विलाप करता है (क० च० ५.१५)। व्याकुल हो कभी भाग्य को कोसता है कभी पशुओं से पूछता है । किन्तु यह वर्णन उतना हदयस्पर्शी नहीं जितना पूर्व का।
निर्वेद भाव-को उद्दीप्त करने वाले अनेक प्रसंग मिलते हैं। पुत्र-वियुक्ता विलाप करती हुई स्त्री को देख करकंड के हदय में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और वह कहता है
तं सुणिवि वयणु रायाहिराउ संसारहो उवरि विरत्तभाउ । धी धो असुहावउ मच्चलोउ दुहु कारणु मणुवहं अंगभोउ । रयणायर तुल्लउ जेत्थु दुक्खु महु बिंदु समाणउ भोयसुक्खु । धत्ता-हा माणउ दुक्खई दड्ढतणु विरसु रसंतउ जहिं मरइ । भणु णिग्घिणु विसयासत्तमणु सो छंडिवि को तहिं रइ करइ ।
९.४.६-१० मर्त्यलोक में समुद्र के समान विशाल दुःख है और मधु विंदु के समान स्वल्प भोग
१. जाणइं-यान, नौकायें। संचहि-टकराते हैं। सोएं-शोक से। मुच्छ
मूर्छा। उट्ठाविय-उठाई गई। उव्वाहुल-उत्सुक। वइवस--वैवस्वत, यम भाग्य । हियउ-हर लिया। करि-क। दुहु--दुःख। वराइय--वराका । आवई-आपत्ति में। सरउं-स्मरण करूं। पइ--पति।