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अपभ्रंश-साहित्य
भवणयलु खलभलिउ गिरि पवर टलटलिउ। मयरहरु मलमलिउ धरणिंदु सलवलिउ।
खगणाहु परिसरिउ सुरराउ थर हरिउ । घत्ता-सोसह, सुणेविण धणु गुणहो रह भग्गा ण्ठा गय पवर। मउ गलियउ चंपणराहिवहो भयभीय ण चल्लहिं कहिं खयर ॥',
३. १८. २-११ शृङ्गार में संयोग वियोग दोनों पक्षों का वर्णन है। नारी रूप वर्णन में कवि ने परंपरा का आश्रय लिया है । भिन्न-भिन्न अंगों की सुन्दरता के लिए परंपरागत उपमान ही अधिकता से पाये जाते हैं। पदमावती के रूप-वर्णन में अधरों की रक्तिमा का कारण आगे उठी हुई नासिका की उन्नति पर अधरों का कोप-कल्पित किया गया है। इस एक उत्प्रेक्षा के अतिरिक्त शेष वर्णन प्रायः प्राचीन रूढ़ि पर ही आश्रित हैं । कवि का ध्यान शारीरिक सौंदर्य तक ही जा पाया है । पद्मावती के हृदय के सौंदर्य की ओर निर्देश नहीं मिलता।
वियोग पक्ष में नायक-वियोग और नायिका-वियोग दोनों का वर्णन मिलता है । नायिका के वियोग वर्णन में जो तीव्रता है वह नायक-वियोग में नहीं दिखाई देती ।
करकंड के वियोग पर रतिवेगा के विलाप से समुद्र जल विक्षुब्ध हो उठा, नौकाएँ परस्पर टकराने लगीं। हा हा का करुण शब्द उठ पड़ा, उसके शोक से मनुष्य व्याकुल हो गयेघत्ता-हल्लोहलि हूयउ सयलु जलु अपरंपरि जाणइं संचहि । हा हा रउ उट्ठिउ करुणसरु तहो सोएं गरवर सलवलाह ॥
.. ७. १०. ९-१० रतिवेगा विलाप करने लगी
जा णरपाणणु वियसिय आणणु जलि पडिउ । ता सयलहिं लोहि पसरिय सोहि अइउरिउ ॥ रइवेय सुभामिणि णं फणि कामिणि विमणभया । सव्वंगे कंपिय चित्ति चमक्किय मुच्छगया। किय चमर सुवाएं सलिल सहाएं गुणभरिया। उहाविय रमणिहिं मुणिमण दमणिहि मणहरिया ॥ सा करयल कमलहिं सुललिय सरलहिं उरु हणइ । उववाहुलणयणी गग्गिर वयण पुणु भणइ ॥ हा वइरिय वइवस पावमलीमस किं कियउ ।
१. गुण सेव-गुणसेवी । खोहं--क्षोभ को। कुम्मु-कूर्म जिस की पीठ पर पृथ्वी
स्थित है। मयर हरु झलझलिउ-मकरों का घर, समुद्र विक्षुब्ध हो गया। सलवलिउ-कांप उठा। परिसरिउ-चकरा गया। मउ--मद ।