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अपभ्रंश - खंडकाव्य (धार्मिक)
जसवइ पिय-वर्याण निठुरेण विज्झाइय वण-लय जिह देवेण । तुट्ठट्ठ गरुय - दुक्खह भरेण सिरि ताडिय नावइ मोग्गरेण । सोहग्ग-मडफ भग्गु केम धीरेण रणंगणि भीरु जेम । उम्मूलिउ कह सुरयाहिलासु नइ-पूरि जिह दोत्तडि- पलासु । संताउ वियंभइ हियए केम नव जोवणि वम्मह - जलणु जेम । रोवंतिए निवडह उज्जलाइ अंसुयइ नाइ मोहलाई । अज्जु “काई विणु कारणेण, महु रुट्ठ नाहु" चितइ मणेण ।
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भन्नु हरिणि जिह दिट्ठ-सोह । जरिय व्व मुयइ नीसास दीह ।
१. १३
अर्थात् यशोमती निष्ठुर, प्रिय के वचनों से वनाग्नि से दग्ध वनलता के समान हो गई । गुरु दुःखभार से ऐसी शिथिल हो गई मानो मुद्गर से उसके सिर पर प्रहार किया हो । धीर पुरुष द्वारा रणक्षेत्र से भगाये कायर के समान उसका सौभाग्य- गर्व लुप्त हो गया । नदी-वेग से कूलवर्ती पलाश वृक्ष के समान उसका सुरताभिलाष उन्मूलित हो गया । नव यौवन में कामाग्नि प्रसार के समान उसके हृदय में संताप प्रसृत हो गया । ऐसा प्रतीत होता था कि रोती हुई यशोमती के मोती न थे अपितु उज्ज्वल आँसू थे ।...... सिंह को देख भयाकुल हरिणी के समान संतप्त यशोमती दीर्घ निःश्वास छोड़ने लगी ।
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कवि के वर्णन में वेदना की मात्रा का अतिरंजित वर्णन नहीं अपितु उसके वेदनाभिभूत विक्षुब्ध हृदय का अंकन है । जहाँ कवि ने उसकी शारीरिक अवस्था का चित्र खींचा है वहाँ भी वह हृदय को ही प्रभावित करना चाहता है-
आरत-नयण,
विच्छाय- वयण दरमलिय-कंति, कलुणं रुयंति आहरण- विवज्जिय विगय-हार
उम्मुक्क हास, उव्विग्ग दीण, उच्चिणिय- कुसुम
पसरंत - सास ।
सयल खीण ।
कुद -साह ।
१. १४.७४ - ४६
रक्त नयन वाली, निस्तेज मुख वाली, हास्य रहित, निःश्वास छोड़ती हुई, विलुप्त कांति वाली, करुण क्रन्दन करती हुई उद्विग्न एवं दीन यशोमती की जैसे तैसे सारी रात्री व्यतीत हुई । आभरण रहित यशोमती ऐसी कुंद शाखा के समान दिखाई दे रही थी जिस पर से सब फूल बीन लिये गये हों ।
निसि
नं
इसी प्रकार समुद्रदत्त से तिरस्कृत पद्मश्री के हृदय की व्याकुलता ( ३.९–१०), 'पद्मश्री के परित्याग पर उसके पिता शङ्ख का कुल में कन्या - जन्म से खिन्न होना ( ४.२. १८-२४) आदि प्रसंग कवि के भावक हृदय की सूचना देते हैं ।
स्वभाव चित्रण - कवि धार्मिक भावना से प्रेरित हो अपने पात्रों को निश्चित दिशा और निश्चित लक्ष्य तक पहुँचाने में प्रयत्नशील था । अतएव सीमित क्षेत्र के अन्दर पात्रों के चरित्र को विकसित होने का पूर्ण अवसर नहीं मिल सका । फिर भी उस सीमित क्षेत्र में पात्रों के चरित्र में स्वाभाविकता दिखाई देती है । यशोमती और यशोदा