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अपभ्रंश-साहित्य
है। मध्य देश का अलंकृत भाषा में वर्णन करता हुआ कवि कहता है
इह भरहि अत्थि उज्जल सुवेसु सुपसिद्धउ नामि मज्झदेसु । तहि तिन्नि वि हरि-कमलाउलाइँ कंतार-सरोवर राउलाई॥ धम्मासत्त नरेसर मुणिवर सहु सुयसालि लोग गुणि दियवर । गामागर पुर नियर मणोहर विउल नीर गंभीर सरोवर ॥ उदलिय कमल संड उन्भासिय केयइ कुसुम गंध परिवासिय ॥ बहुविह जण धण धन्न रवाउलु गो महिस उल रवाउल गोउलु ॥ भूसिउ धवल तुंग वरभवणेहि संकुल गाम सीम उच्छरणेहि ॥ कोमल केलिभवण कय सोहिहि फलभर नामिय तुंग दुमोहिहि ॥ फोप्फल नागवेल्लि दल थामेहि मंडिउ गामुज्जाणारामेहि ॥ कयवर चक्कमालि कुसुमालिहि वज्जिउ दूराउल दुक्कालिहि ॥
पंथियजण विइन्न वरभोयणु विविहूसव आणंदिय जण मणु ॥ पत्ता-कइवर नड नट्टिहि चारण बंदिहि नच्चिउ सुपुरिसह चरिउ । वर गेय रवाउलु रहस सुराउलु महिहिं सग्गु नं अवयरिउ ॥
१.२ वर्णन में कवि की दृष्टि मध्यदेश के कांतार, सरोवर और राजकुलों के साथ साथ वहाँ के ग्रामों पर भी गई । गो महिष कुल के रम्य शब्द, ग्राम सीमावर्ती इक्षु वन, ग्रामोद्यान आदि भी उसकी दृष्टि से ओझल नहीं हुए। वर्णन करते हुए मध्यदेश में सुपारी और नागवेल (पान) का भी उल्लेख किया है । वर्णन की समाप्ति में कवि कहता है कि मध्यदेश ऐसा प्रतीत होता था 'महिहिं सग्गु नं अवयरिउ' मानो पृथ्वी पर स्वर्ग अवतीर्ण हुआ हो । यह कल्पना अपभ्रंश कवियों को अत्यन्त प्रिय थी। स्वयंभू (रि० च० २८. ४), पुष्पदन्त (म० पु. १. १५ और ९२. २), धनपाल (भ० क० १.५), ने भी अपने काव्यों में इसका प्रयोग किया है । इसी प्रकार कवि का वसन्तपुर वर्णन (प० सि० च० १.३) भी रमणीय है । कवि के वस्तु-वर्णन में संश्लिष्ट-वर्णन शैली मिलती है। इनके अतिरिक्त विवाह की धूमधाम, (२. १८-२१) का, वर के हाथी का (२. १९) वर्णन भी सरस और सुन्दर है ।
काव्य में रतिभाव ही प्रधानता से वर्णित है। समाप्ति में निर्वेदभाव भी अंकित किया गया है । कथा प्रवाह में ऐसे स्थल अनेक हैं जहाँ कवि की दृष्टि गूढ मानसिक विकारों तक पहुँचती हुई दिखाई देती है । हृदय को भावमग्न करने वाले प्रसंगों के प्रति कवि उदासीन नहीं दिखाई देता अपितु ऐसे प्रसंगों पर पात्रों द्वारा सुन्दरता से भाव व्यंजमा कराता हुआ दिखाई देता है।
धनदत्त और यशोमती के प्रेमभाव उत्पन्न हो जाने पर धनदत्त में अमर्ष भाव की व्यंजना (प०सि० च० १. १२) और यशोमती में वेदना की व्यंजना कवि ने सुन्दरता से की है। कवि कहता है