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अपभ्रंश - साहित्य
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सुख है । कवि ने इन शब्दों द्वारा दुःख की विशालता, गंभीरता, क्षारता, और सुख की मधुरता, स्वल्पता, दुर्लभता आदि अनेक भावों की व्यंजना कर दी है । संसार की नश्वरता कौर अस्थिरता का वर्णन करता हुआ कवि आगे कहता है-कम्मैण परिट्ठिउ जो उबरे जमरायएं सो णिउ णिययपुरे । जो बालउ बार्लाहि लालियहु सो विहिणा णियपुरि चालियउ । ra जोव्वणि चडियउ जो पवरु जमु जाइ लएविणु सो जिगरु । जो बूढउ वाहिसएहि कलिउ जमदूर्याह सो पुणु परिमलिउ | बलभद्दएं सहुं हरि अतुलबलु सो विहिणा णीयउ करिवि छ । छक्खंड वसुंधर जेहि जिया चक्केसर ते कालेण णिया । विज्जाहर किंणर जे खयरा बलवंता जममुहे पडिय सुरा । फणि नाहइं सरिसउ अमरवइ जमु लिउ कवणु वि णउ मुअइ । धत्ता-- णउ सोत्तिउ बंभणु परिहरइ णउ छंडइ तवसिउ तवि ठियउ । धनवंतु ण छुट्टइ ण वि जिहणु जह काणणे जलणु समुट्ठियउ ॥
९.५. १-१०.
काल के प्रभाव से कोई नहीं बचता । युवा, वृद्ध, बालक, चक्रवर्ती, विद्याधर, किन्नर, खेचर, सुर, अमरपति सब काल के वशवर्ती हैं। घत्ता-गत दृष्टान्त के द्वारा भाव सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है। जंगल में आग लग जाने पर श्रोत्रिय ब्राह्मण, तपस्वी, धनवान, निर्धन कोई नहीं बचता ।
करंति ।
सांसारिक विषयों की क्षणभंगुरता की ओर निर्देश करता हुआ कवि आगे कहता हैasaण विणिम्मिउ देहु जं पि लायण्णउ मणुवहं थिरु ण तं पि । जव जोव्वणु मणहरु जं चडे देवहं वि ण जाणिउ कहि पडेइ । जे अवर सरीहि गुण वसंति ण वि जाणहुं केण पहेण जंति । ते काहो जइ गुण अचल होंति संसारहं विरहं ण मुणि करिकण्ण जेम भिर कहिं ण थाइ पेक्खंतहं सिरि णिणणासु जह सूयउ करयलि थिउ गलेइ तह णारि विरती खणि भू जयण वयण गइ कुडिल जाहं को सरल करेवई सक्कु मेल्लंती ण गणइ सयण इट्ठ सा दुज्जण मेत्ति व चल धत्ता - णिज्ज्ञाय जो अणुवेक्ख चल वइराय भाव संपत्तउ । सो सुरहर मंडणू होइ गरु सुललिय मणहर गत्तउ ॥ '
जाइ ।
चलेइ ।
ताहं । णिकिट्ठ |
९.६ इस संसार में प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है । वह अकेला ही संसार
लायण्णउ -- लावण्य । थाइ -- ठहरती । सिरि--श्री । सूयउ - - पारा | मेल्लंती — छोड़ती हुई । मेत्ति-मंत्री । सुरहर - सुर गृह । मणहर गत्तउ --मनोहर
गात्र वाला ।