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अपभ्रंश-साहित्य
से क्रुद्ध न हो। ___कवि के वर्णन में स्वाभाविकता है । गंगा जल की शुभ्रता और उसमें हिमाचल की कीति कल्पना परंपराभुक्त है। कवि प्रकृति को जड़ नहीं समझता। सरोवर का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
जल कुंभि कुंभ कुंभई धरंतु तण्हाउर जीवहं सुहु करंतु । उदंड णलिणि उण्णइ वहंतु उच्छलिय मोहिं मणु कहंतु । डिंडीर पिंड रयहिं हसंतु अइ णिम्मल पउर गुणेहिं जंतु । पच्छण्णउ वियसिय पंकएहि पच्चंतउ विविह विहंगएहिं। गायंतउ भमरावलि रवेण धावंतउ पवणाहय जलेण। णं सुयणु सुहावउ णयणइठ्ठ जलभरिउ सरोवरु तेहिं दिठ्ठ ।
४. ७. ३-८. यहां पर भी कवि सरोवर को जड़ और स्पन्दन रहित नहीं देखता । शुभ्र फेन-पिंड से वह हँसता हुआ, विविध पक्षियों से नाचता हुआ, भ्रमरावलिगुजन से गाता हुआ और पवन से विक्षुब्ध जल के कारण दौड़ता हुआ सा प्रतीत होता है। वर्णन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि कवि प्रकृति में जीवन, जाग्रति और स्पन्दन मानता है।
भाषा--कवि ने भाषा को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए भावानुरूप शब्दों का प्रयोग किया है । पद-योजना में छन्द-प्रवाह भी सहायता प्रदान करता है। रति वेगा के विलाप (७. ११) में प्रयुक्त पद योजना और छन्द उसके हदय की करुण अवस्था की अभिव्यंजना करते हैं । शब्दों से रति वेगा की रोदन-ध्वनि रह रह कर कानों में सुनाई देने लगती है। इसी प्रकार सरोवर वर्णन (४.७) में पद योजना से सरोवर के जल को आलोड़ित करते हुए पशुओं और पंख फड़फड़ाते हुए पक्षियों का शब्द सा सुनाई देने लगता है। ऊपर वीर रस के वर्णन में भी इसी प्रकार भावाभिव्यंजक पदयोजना की और निर्देश किया जा चुका है।
भाषा को भावानुरूप बनाने के लिए कवि कभी-कभी ध्वन्यात्मक शब्दों का भी प्रयोग करता है।
धरणियलु तडयडिउ तस कुम्मु कडयडिउ । भुवणयलु
खलभलिउ गिरि पवर टल टलिउ । मयरहरु झलझलिउ इत्यादि
३.८ ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग से पृथ्वी, समुद्र और आकाश के विक्षोभ की सूचना मिल जाती है।
शब्दाडम्बर रहित, सरल और संयमित भाषा में जहां कवि ने गम्भीर भाव अभिव्यक्त किए हैं वहाँ उसकी शैली अधिक प्रभावोत्पादक हो गई। संसार की क्षणभंगुरता और असारता का प्रतिपादन करने वाले स्थलों में ऐसी भाषा के दर्शन