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अपभ्रंश-साहित्य पात्र के चरित्र का विकास कवि को इष्ट नहीं ।
वर्ण्य विषय
अन्य अपभ्रंश काव्यों के समान इसमें भी ग्राम, नगर, अरण्य, सूर्योदय, सूर्यास्त, युद्ध, स्त्री सौंदर्य आदि के सुन्दर वर्णन मिलते हैं। अनेक स्थल कवित्व के सुन्दर उदाहरण हैं। कवि ने वर्णनों में प्राचीन संस्कृत कवियों की परम्परा का भी अनुकरण किया है । बाण के ढंग पर श्लेष द्वारा प्राकृतिक वर्णनों का उदाहरण निम्नलिखित विन्ध्याटवी वर्णन में देखा जा सकता है।
भारह रणभूमि व सरह भीस, हरि अज्जुण नउल सिहंडि दीस। गुरु आसत्थाम कलिंग चार, गय गज्जिर ससर महीस सार। लंकानयरी व सरावणीय, चंदाहं चार कलहा वणीय। सपलास सकंचण अक्ख घट्ट, सविहीसण कइ कुल फल रसट्ट। कंचाइणी व्व ठिय कसण काय, सद्दल विहारिणी मुक्क नाय।
५.८ अर्थात् विन्ध्याटवी महाभारत रणभूमि के समान थी। रणभूमि-रथसहित (सरह) और भीषण थी और उस में हरि, अर्जुन, नकुल और शिखंडी दिखाई देते थे; विन्ध्यावटी-अष्टापदों (सरह) से भीषण थी और उसमें सिंह (हरि), अर्जुन वृक्ष, नेवले और मयूर दिखाई देते थे । रणभूमि-गुरुद्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, श्रेष्ठ कलिंगाधिपति और उत्कृष्ट राजाओं से युक्त थी, बाणों से आच्छन्न और गजों से गजित थी; विन्ध्याटवी-बड़े बड़े अश्वत्थ, आम्र, कलिंगतुल्य चार वृक्षों से युक्त थी, गज गर्षित सरोबरों और महिषों से पूर्ण थी। वह बिन्ध्यावटी लंका नगरी के समान थी। लंका नगरी-रावण सहित एवं चन्द्रनखा की चेष्टा विशेष से कलह कारिणी थी, राक्षसों से, कांचन से और रावणपुत्र अक्षय कुमार से युक्त थी, विभीषण युक्त और रसिक कवियों से परिपूर्ण थी; विन्ध्याटवी-रयण वृक्षों, चन्दन वृक्षों, और मनोज्ञ लघुहस्तियों से युक्त थी, पलाश, मदन एवं बहेड़े के वृक्षों से पूर्ण थी और भीषण कपि कुलों से मुक्त तथा फलों से रसाढ्य थी। विन्ध्याटवी-कृष्णकाया, सिंहवाहिनी, मुक्त नादा कात्यायनीचामुंडा के समान, कृष्ण काकों से युक्त, सिंहों से व्याप्त और जीवों के नाद से परिपूरित थी।
इस प्रकार की श्लिष्ट शैली से भाषा कुछ क्लिष्ट और अस्वाभाविक हो गई है। ऐसे वर्णनों में कवि अलंकारों के बन्धन में बंधकर चमत्कार तो पैदा कर पाता है किन्तु रसोत्पत्ति करने में असमर्थ होता है। जिस हृदयगत भाव को अभिव्यक्त करना चाहता है उसको भली-भांति अभिव्यक्त न कर शब्द जाल में उलझ जाता है । इसी प्रकार से कवि ने निम्नलिखित वेश्या-वर्णन भी प्रस्तुत किया है
वेसउ जत्थ विहूसिय रूवउ, नर मण्णंति विरूउ विरूवउ । खण दिट्ठो वि पुरिसु पिउ, सिद्धउ पणयारूढ न जन्म वि दिउ । णउलम्भवउ ताउ किर गणियउ, तो वि भुयंग दंत नहि वणियउ । वम्महं दीवियाउ अविभयत्तउ, तो वि सिणेह संग परिचसउ ।