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अपभ्रंश-साहित्य
रहता था । उनके भवदत्त और भवदेव नामक दो पुत्र थे। १२ वर्ष के थे उनके पिता का देहान्त हो गया और उनकी भवदत्त संसार से विरक्त हो दिगंबर साधु हो गया । १२ वर्ष तपस्या करने के बाद एक दिन संघ के साथ वह अपने गाँव के पास गया । भवदेव को भी संघ में ही दीक्षित करने के लिए वह वर्धमान ग्राम में गया । भवदेव अपने विवाह की तैयारियों में लगा हुआ था। भाई के आगमन का समाचार सुन वह प्रेम से मिला और उसके आग्रह को न टाल सका। वह भी संघ में दीक्षित हो १२ वर्ष तक इधर उधर घूमता रहा । एक दिन ग्राम के पास से गुजारा। वह घर जाकर विषय भोग में निरत होना चाहता था । भवदत्त ने फिर रोका। दोनों भाई तप करते हुए मरणानन्तर स्वर्ग में जाते हैं (२) ।
स्वर्ग से च्युत होने पर भवदत्त का जन्म पुंडरीकिनी नगरी में वज्रदन्त राजा की रानी यशोधना के पुत्र के रूप में और भवदेव का वीतशोका नगरी के राजा महापद्म की रानी वनमाला के पुत्र के रूप में हुआ । भवदत्त का नाम सागरचन्द और भवदेव का शिवकुमार रखा गया । सागरचन्द पूर्वजन्म स्मरण से विरक्त हो तपश्चर्या में लीन हो गया। शिवकुमार १०५ राजकन्याओं से परिणय कर भोग विलास का जीवन बिताने लगा। एक बार सागरचन्द वीतशोका नगरी में गया । वहाँ उसे मुनि रूप में देख शिवकुमार को पूर्वजन्म का स्मरण हो आया और वैराग्य भाव जागृत हो गये और उसने घरबार छोड़ना चाहा । पिता के समझाने पर उसने घर तो नहीं छोड़ा किन्तु घर में रहते हुए ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। तरुणी जनों के पास रहते हुए भी वह विरक्त सा रहता था । मरणानन्तर वह विद्युन्माली देव हुआ । सागरचन्द भी सुरलोक में इन्द्र के समान देव हुआ । वर्धमान जिन ने श्रेणिक राजा को बताया कि यही विद्युन्माली वहाँ आया था और ७ वें दिन वह मनुष्य रूप में पश्चिम केवली अवतीर्ण होगा । इसके बाद श्रेणिक राज ने विद्युच्चर के विषय में पूछा कि इतना तेजस्वी होने पर भी वह चोर क्यों बना ? जिन वर ने बनाया कि किस प्रकार से वह विद्याबल से चोरी करता था (३) ।
कवि की प्रशंसा से चौथी संधि प्रारम्भ होती है । सइत्तउ नगरी में संताप्पिउ वणिक के पुत्र अरदास की स्त्री ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न में जम्बूफल आदि वस्तुएँ देखीं । समयानुकूल पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम स्वप्नानुसार जंबू स्वामी रखा गया। जंबू स्वामी अत्यधिक सुन्दर थे । नगर वधुएँ उन्हें देखकर उन पर आसक्त हो जाती थीं । इसी प्रसंग में कवि वसन्तोत्सव, जलक्रीड़ा ( ४.१९) आदि का वर्णन करता है । इसके अनन्तर जंबू के मत्तगज को परास्त करने का वर्णन किया गया ' है (४) ।
पांचवीं से सातवीं संधियों तक जंबू के अनेक वीर कार्यों का वर्णन है । महर्षि सुधर्मा स्वामी अपने पांच शिष्यों के साथ उपवन में आते हैं । जंबू स्वामी उनके दर्शन कर नमस्कार करते हैं (५-७ ) 1
जंबू स्वामी मुनि से अपने पूर्व जन्मों का वृत्तान्त सुनकर विरक्त हो घर छोड़ना
जब वे क्रमशः १८ और माता भी सती हो गई ।