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अपभ्रंश-साहित्य भाषा-ऊपर निर्देश किया जा चुका है कवि मे भावानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। भाषा में वेग और प्रवाह दृष्टि-गोचर होता है । देखियेवस्तु
को दिवायर गमणु पडिखलइ । जम महिस सिंगु कवणह। कवणु गरुड मुह कुहरे पयसइ । को करग्गहु निग्यहइ । को जलंते सव्वासे पइसइ। को वा सेस महाफहिं, फण मणि मंड हरेइ । को कप्पंतु ठंतु जलु, जलणिहि भएहिं तरेइ ।।
भाषा में कवि ने अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग भी किया है । निम्नलिखित उद्धरण में युद्ध के समय बजते हुए नाना वाद्यों को ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है
पहय पडुपडह पडिरडिय दडि डंवरं, करड तड तडण तडि वडण फुरियंवरं। धुम्म धुम्मुक धुमु धुमिय मद्दल वरं। साल कंसाल सल सलिय सललिय सरं। डक्क डम डंक डम डमिय डमरुभरं। घंट जय घंड टंकार रहसिय भडं. टक्क चां चां हु डुक्कावलो नाइयं । रंज गुंजत संदिग्ण समघाइपं . घग ग ब्रुग ग ग ग घग हुने सज्जियं किरिरि किरि तट्टकिरिकिरिरि किरि वज्जियं । त खे खे खि त खेतखित खेत्ता सुरं। तं खुदे तं खुदे खंदि खुदि भासुरं। घिरिरि कट तट्ट कट्ट धरि नाडियं । करिरि कर खुदं किरिरि तड ताडियं ।
अलंकार-कृति में कवि ने अलंकारों का प्रयोग भी किया है। ये अलंकार उपमा और उत्प्रेक्षा के प्रसंगों में बाण की शैली पर चमत्कार उत्पन्न करते हुए भी दिखाई देते हैं (उदाहरण के लिए ऊपर विन्ध्याटवी वर्णन ५.८, और वेश्या वर्णन ९.११)। इसके अतिरिक्त इनका वर्णन भावाभिव्यक्ति के लिए स्वाभाविक रूप से भी कवि ने किया है । सादृश्य मूलक अलंकारों में कवि का ध्यान वस्तुस्वरूप बोध की ओर अधिक रहा। उदाहरणार्थपरिपक्कउ णहरुक्खहो णिवडिउ फलुव दिवायर मंडलु विहडिउ ।
८.१३ अर्थात् सूर्य मंडल अकाश वृक्ष के परिपक्व फल के समान गिर पड़ा।