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अपभ्रंश खण्डकाव्य (धार्मिक)
'सग्गु मुएवि णरउ कि वंछहि । ८.५ अर्थात् स्वर्ग को छोड़ नरक क्यों चाहता है ?
'तं खज्जइ जं परिणइ पावइ' । ८.५ अर्थात् वह खाओ जो हज़म हो जाय ।
'अण्णु मज्झु तं हासउ दिज्जइ, घरे रंद्धिए जं भिक्ख भमिज्जइ । ' अन्य व्यक्तियों में वह उपहसित होता है जो घर में भोजन पका कर भिक्षा के लिए घूमता फिरे ।
'वर सुवण्ण कलसहो उवरि, ढंकणु किं खप्परु दिज्जइ । ८.६
क्या सुवर्ण कलश के ऊपर खप्पर का ढकना दिया जाता है ? 'पर उवएसु दिंतु बहु जाणउ' । ८.८
दूसरे को उपदेश देना बहुत लोग जानते हैं । 'बुद्ध सुद्ध किं कंजिउ पूरई । ८.८ क्या शुद्ध दूध काँजी की समता कर सकता है ? ' दइवायत्तु होंतु को वारई'
अवसु विवसि किज्जइ जं रुच्चइ, विस भएण कि फणि मुणि मुच्चई । ८.२१ 'देवहं वि दुलक्खउ तिय चरितु' । ९.१८
अर्थात् स्त्री चरित्र देवताओं से भी दुर्लक्ष्य है ।
'जोव्वणु पुणु गिरिणइ वेय तुल्लु, विद्धतें होइ सव्वंगु ढिल्लु' । ९.२१ यौवन पहाड़ी नदी के वेग के तुल्य होता है । वृद्धत्व से अंग अंग शिथिल हो जाता है ।
'सप्पुरिसहो कि बहुगुर्णाह, पज्जत दोसह णराहिव ।
तडि विष्फुरणु व रोसु मणे मित्ती पाहण रेहा इव ॥ ९.१८ 'अमिलंताण व दोसइ हो दूरे वि संठियाणं पि ।
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जइवि रवि गयणयले इह तहवि हुलइ सुहु णलिणी ॥'
८.४
अर्थात् परस्पर न मिलते हुए दूर स्थित प्राणियों में भी स्नेह देखा जाता है । जिस प्रकार सूर्य दूर गगनतल में रहता है किन्तु फिर भी नीचे भूतल पर नलिनी विकसित होती है ।
इस प्रकार नयनंदी की भाषा और वर्णन शैली को देखने से 'सुदंसण चरिउ', निस्सन्देह अपभ्रंश का एक उत्कृष्ट काव्य सिद्ध होता है । कवि ने तो इसे पूर्णरूप से दोष . रहित घोषित किया है ।
१. रामो सीय विऊय सोय विहरं संपत्तु रामायणे
जादा पंडव धायरट्ठ सद दं गोत्तं क्कली भारहे ।
हेड्डा कोलिय चोर रज्जु निरदा णो एक्कं पि सुदंसणस्स चरिदे
आहासिदा सुद्दये । समुडभासिदं ॥ शार्दूल०
दोसं
सु० च० ३.१