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अपभ्रंश-साहित्य
धीरा ।
ण पेकामि लंकेस लंकाविणासं । इमंजंपिउ पंसुणा पंडतेण तेणा वि संरुद्ध चारं । कयं चाउरंगं वले रयंधारए जूरिया के वि वीरा । रणंतो विकुव्वंति अण्णोणु धणुम्मुक्कटंकार सद्दाउ जोहे । बिसज्जेइ वाणावली बद्ध कोहे । चलते रहे चक्क चिक्कारसद्दे । रहीउ रहीयस्स मेल्लेवि कंदे । या हिंसणे आसुरो आसवारे । पधावेइ णिक्खो ज्ज तिक्खा सिधारे । ए गज्जिए गज्जमाणो गइंदो । समुद्धावए णं महंदे मदो । जहा पक्कले पवकलोणो वलुक्को । सहक्कंत पाइक्के पाइक्क चक्को । तलप्पतं फारक्के फारक्क फारो । पइट्ठो पइझंति दिण्ण प्पहारो । पिसक्कोह सुँकार सद्दे अभग्गो । सुधाणुक्किए को वि धाणुक्कु लग्गो ।
घत्ता
मुक्कसः । अंधयारं ।
पडु कोवि पयासह । वाण सहासह । सीरि उरहुरेहइ पवरु । यि कहि सुदारुणु । पर हिंसारुणु । णावह फग्गुण दिवसयरु ||
३५. १८
कवि ने निर्वेद भाव जागृत करने वाले वर्णन भी प्रस्तुत किये हैं । निन्नलिखित उद्धरण में कवि ने सांसारिक असारता और मानव की उन्नति - अवनति का हृदयग्राही वर्णन किया है
तडिव चवल घरिणी सुहासिणी । कासु सासया सिरि विलासिणी ॥ उक्तं च || गाथा ।
उययं चडणं पडणं तिण्णि वि ठाणाइं इक्क दियहंमि । सूरस्स य एस गई, अण्णस्स य केत्तियं थामं ॥
६.८
अर्थात् जब एक ही दिन में सूर्य जैसे पराक्रमी को भी उदय, उपरिगमन और पतन इन तीनों अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है तो फिर औरों का क्या कहना ?
इसी प्रकार निम्नलिखित दुवई छन्द में नलिनी दलगत जल बिन्दु के समान जीवन, को चपल बताया गया है
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दुबई -- अणिलुल्ललिय ललिय णलिणी दल जल लव चपल जीवियं । जणु जोवणु घणं ण कि जोवह वहवस लण दीवियं ॥ ६.९ भाषा -- कवि ने ग्रन्थ में सरस और अनुप्रासमयी भाषा का प्रयोग किया है । "ससि कास कुसुम संकास जस, पसर पूर पूरिय दिस ।" “तयलोय लोय लोयणहं पिय"
जैसी मधुर पदावली से ग्रन्थ परिपूर्ण है । कहीं कहीं पर युद्ध प्रसंग में भी कवि ने इसी प्रकार की सरस भाषा का प्रयोग किया है । जैसे निम्नलिखित उद्धरण में रणभूमि की सरिता से तुलना की गई है। दोनों वस्तुओं के अंगों में उपलब्ध धर्मों द्वारा दृश्य को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया गया है-