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अपभ्रंश-साहित्य
यह दोहा योगीन्दु के परमात्म प्रकाश में भी निम्नलिखित रूप में मिलता है--
संता विसय जु परिहरइ, वलि किज्जलं हउँ तासु। सो दइवेण जि मुंडियउ, सीस खडिल्लउ जासु ॥
२. १३९ हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में भी यह दोहा मिलता है
संता भोग जु परिहरइ, तसु कंतहो बलि कीसु । तसु दइवेण वि मुंडिउउं, जसु खल्लिहडउं सीसु ॥
८.४.२८९ कवि के सुदंसण चरिउ के समान इस ग्रन्थ में भी छन्दों की बहुलता दृष्टिगत होती है। प्रत्येक सन्धि के प्रत्येक कडवक की समाप्ति पर कवि ने प्रयुक्त छन्द का नाम दे दिया है । आत्म विनय के प्रसंग में कवि ने अपने आपको 'देसी छंदों' से अनभिज्ञ कहा है। इससे प्रतीत होता है कि कवि के समय तक संस्कृत और प्राकृत के छन्दों से अतिरिक्त अनेक प्रकार के अपभ्रंश छन्दों का प्रचलन हो गया था। कवि ने स्थान-स्थान पर छन्दों का दूसरा नाम भी दे दिया है । जैसे
"वसंत तिलक सिंहोद्धता व णामेदं छंदः" "तुरंग गति मदनो वा छंदः"
"प्रियंवदा अनंतकोकिला वा नामेदं छंदः" इत्यादि । कवि ने वणिक और मात्रिक दोनों प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। ग्रन्थ में ६२ के लगभग मात्रिक और २० के लगभग वर्णिक छन्दों का प्रयोग मिलता है।'
१. इस ग्रन्थ में सुदंसणचरिउ में प्रयुक्त छंदों के अतिरिक्त निम्नलिखित छंद प्रयुक्त
श्रेणिका, उपश्रेणिका, विषम शीर्षक, हेम मणिमाल, रासाकुलक, मंदरतार, खंडिका, मंजरी, तुरंगगति (मदन), मंदतारावली (कुमुय कुसुमावली), सिंधुरगति, चारुपदपंक्ति, मनोरथ, कुसुम मंजरी, विश्लोक, मयण. मंजरी, कुसुमछर, भुजंग विलास, हेला, उवविछिया, रासावलय, कामललिया, सुंदरमणिभूषण, हंस लील, रक्ता, हंसिणी, जामिणी, मंदरावली, जयंतिया, मंदोद्धता, कामकीड़ा, णागकण्णा, अणंगभूषण, गइंद लील, गुणभूषण, रुचिरंग, स्त्री, जगन्सार, संगीतकगांधर्व, वालभुजंगललित, चंड, शृंगार, पवन, हरिणकुल, अंकणिका, धणराजिका (हेला), अंजनिका, वसंत तिलक, पृथिवी, प्रियंवदा, (अनंतकोकिला), पुप्फमाल, पंतिया, शालिनी, विद्युन्माला, रथोद्धता, कौस्तुभ (तोणक), अशोक मालिनी इत्यादि ।