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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक)
किन्तु इस वसुधा - पीठ पर स्त्री - चित्त की थाह लेने में कौन समर्थ है ? किसी-न-किसी उपाय से ग्रह-चक्र, अंबुधि - सलिल, वाल- निकर इत्यादि जाने जा सकते हैं किन्तु तियाचरित्र का समझना संभव नहीं । वस्तु छंद
सव्व लक्खण तक्क सुणिघंट । स छंदालंकार वर
चरण करण सिद्धांत भेयई । जीवण मरण सुहासुहइं
कम्म पर्याड बंधई अर्णयई ।
मंतई तंतई सउणाई, एत्यु ण कीरइ भंति ।
एक्कु मुएविणु तिय चरिउ, सव्वई जाणिज्जंति ॥ ७
अइ सरोसहं सीह वग्घाहं । आसी विसहरहं,
कहव चित्तु धिप्पइ अलीढई । अणुमेत्तु वित्तियहे पुणु,
को समत्थु इह वसुह वीढए ।
गह चक्कु वि अंबुहि सलिलु, वालुय गियर वि चित्त । कह व पवाएं जाणिय, णउ पुणु तियहे चरितु ॥ ८
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८.३६
भाषा
- कवि ने काव्य में क्लिष्ट और अनेक प्रकार के अलंकारों और मुहावरों से युक्त भाषा का प्रयोग किया है । स्थान-स्थान पर सुन्दर सुभाषित भी प्रयुक्त हुए हैं। क्लिष्ट शैली के प्रयोग से यद्यपि भाषा कछ क्लिष्ट प्रतीत होती है तथापि सरल और प्रसादगुण युक्त भाषा का अभाव नहीं । देखिये-
कडु उपलाविरेण ।
कि मित्तं कवडु पयासिरेण, कि सुयणं परउवहासिरेण । कि राएं जण संताविरेण, किं वाएं किं णेहें विप्पिय दाविरेण, कि लद्धे कि लछि विहीणें पंकरण, किं मणुएं कि कुसुमें गन्ध विवज्जिएण, किं सूरें समर
धम्मे
पाविरेण ।
लग्ग
कलंकरण ।
परज्जिएण ।
किं भिच्चें पेसण संकिएण, किं कि दव्वें किविण करासिएण, किं किं णीरसेण णच्चिय णडेण, कि
तुरएं ऊरूढं किएण । कव्वें लक्खण दूसिएण । साहुहु
इंदिय लंपडेण ।
सु० च० ११.९.
ग्रन्थ में श्लेष, उपमा, रूपक, विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग मिलता है । साम्य प्रदर्शन के लिए कवि ने शब्दगत साम्य की ही ओर अधिक ध्यान दिया