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अपभ्रंश-साहित्य हारी वर्णन इस संधि में उपलब्ध होते हैं। निम्नलिखित गाथा से आठवीं संधि प्रारम्भ होती है
कोमल पयं उदार छंदाणुवरं गहीर मत्थई । हिय इछिय सोहग्गं कस्स कलत्तं व इह कव्वं ॥
अभया ने पंडिता नामक अपनी सेविका धाय से अपनी मनोव्यथा प्रकट की और सुदर्शन को प्राप्त करने का प्रयत्न किया । चतुरा दासी पंडिता सुदर्शन को रानी के पास ले तो आई किन्तु रानी उसको अपने आधीन न कर सकी । अभया कहने लगी
भो सुहय इय जम्मे । णयवत्ते जिणधम्मे । करिऊण आयासु । पाविहसि सुरवासु । किं तेण सोक्खेण । जे होइ दुक्खेण । लइ ताम पच्चक्खु । तुहं माणि रइ सोक्तु । मा होइ अवियार। संसारे तं सार। भुंजियइं तं मिठु । माणियई स मणिछ ।
पर जम्मु किं दिछ । घत्ता-हे सुंदर अम्हई दुहुवि, जइ जेहें कालु गमिज्जइ । तो सग्गेण मणाहरेणा लखेण वि भणु किं किज्जइ ॥
८. १५ अभया ने अनेक दृष्टान्त दिये-व्याख्यान दिये किन्तु सुदर्शन को विचलित न कर सकी। अंत में निराश होकर अभया अपने ही नाखूनों से अपने शरीर को रुधिर रंजित कर चिल्लाने लगी-लोगो दौड़ो, मेरी रक्षा करो। घत्ता
महु लडहं गई वणिवरेण, एयइं गंजियइं पलोयहो। जामण मारइ ता मिलेवि, अहो पावहो धावहो लोयहो ।
राजकर्मचारियों ने आकर सुदर्शन को पकड़ लिया। एक अति मानव-देव-(वितर) ने आकर उसकी रक्षा की । नवीं संधि में धाड़ीवाहन और उस अतिमानव के युद्ध का वर्णन किया गया है। धाडीवाहन ने परास्त हो कर आत्मसमर्पण कर दिया और सुदर्शन की शरण में चला गया। यथार्थ घटना के ज्ञात होने पर राजा धाडीवाहन ने सुदर्शन को आधा राज्य देकर विरक्त होना चाहा किन्तु सुदर्शन स्वयं विरक्त हो तपस्वी का जीवन बिताने लगा। रानी अभया और उसकी परिचारिका पंडिता दोनों ने आत्मघात कर लिया। सुदर्शन मरणोपरान्त स्वर्ग में गया । दसवीं और ग्यारहवीं संधियों में अनेक पूर्व जन्म के वृत्तान्तों का वर्णन किया गया है । पंच नमस्कार फल का माहात्म्य प्रतिपादन करते हुए कवि ने ग्रंथ की समाप्ति की है।
कथानक में कुछ घटनाओं का अनावश्यक विस्तार किया गया है । धाड़ीवाहन