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अपभ्रंश-साहित्य रूप वर्णन की इस शैली का आभास विद्यापति के पदों में भी दिखाई देता है।'
इस रूप वर्णन में कुछ उपमानों की छाया जायसी के पद्मावती रूप-वर्णन में दिखाई देती है।
सुदर्शन के सौन्दर्य को देखकर मनोरमा भी उसके प्रति आकृष्ट हो गई। मनोरमा की व्याकुलता में विप्रलंभ शृगार की अभिव्यंजना हुई है । मनोरमा व्याकुल हो काम को उपालम्भ देती है
अरे खल स्वभाव काम ! तुम भी मेरे देह को तपाते हो क्या सज्जन को यह उचित है ? रुद्र ने तुम्हारी देह जलाई फिर मुझ महिला के ऊपर यह क्रोध क्यों ? अरे मूर्ख ! तुम ने पांचों बाण मेरे हृदय पर छोड़ दिये फिर दूसरी युवतियों को किससे विद्ध करेगा? दुवई
कमलु जलद्द गेउ भूसण दिहिणवि कप्पूर चंदणं ।
असणु ण सयणु भवणु पडिहासइ पवियं भेइ रणरणं ।। १. कबरी-भय चामरि गिरि कन्दर
मुख-भय चाँद अकासे। हरिन नयन-भय, सर-भय कोकिल
गति-भय गज बनवासे ॥ २ कुच-भय कमल-कोरक जल मुदि रहु
घट परवेस हुतासे।। दाडिम सिरिफल गगन वास कर
___ सम्भु गरल कर ग्रासे ॥ ६ भुज भय पंक मृनाल नुकाएल
कर भय किसलय काँपे।
विद्यापति पदावली--रामवृक्ष बेनीपुरी संकलित पदसंख्या २०, पृष्ठ ३०. विहि निरमलि रामा दोसर लछि समा
भल तुला एल निरमान ॥ ३ कुच-मंडल सिरि हेरि कनक-गिरि
लाजे दिगन्तर गेल ।
माझ-खोनि तनु भरे भांगि जाय जनु
विधि अनुसये भल साजि । नील पटोर आनि अति से सुदृढ़ जानि
जतन सिरिजु रोमराजि ॥७ विद्यापति पदावली, पदसंख्या २२, पृ० ३२.