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________________ १६८ अपभ्रंश-साहित्य रूप वर्णन की इस शैली का आभास विद्यापति के पदों में भी दिखाई देता है।' इस रूप वर्णन में कुछ उपमानों की छाया जायसी के पद्मावती रूप-वर्णन में दिखाई देती है। सुदर्शन के सौन्दर्य को देखकर मनोरमा भी उसके प्रति आकृष्ट हो गई। मनोरमा की व्याकुलता में विप्रलंभ शृगार की अभिव्यंजना हुई है । मनोरमा व्याकुल हो काम को उपालम्भ देती है अरे खल स्वभाव काम ! तुम भी मेरे देह को तपाते हो क्या सज्जन को यह उचित है ? रुद्र ने तुम्हारी देह जलाई फिर मुझ महिला के ऊपर यह क्रोध क्यों ? अरे मूर्ख ! तुम ने पांचों बाण मेरे हृदय पर छोड़ दिये फिर दूसरी युवतियों को किससे विद्ध करेगा? दुवई कमलु जलद्द गेउ भूसण दिहिणवि कप्पूर चंदणं । असणु ण सयणु भवणु पडिहासइ पवियं भेइ रणरणं ।। १. कबरी-भय चामरि गिरि कन्दर मुख-भय चाँद अकासे। हरिन नयन-भय, सर-भय कोकिल गति-भय गज बनवासे ॥ २ कुच-भय कमल-कोरक जल मुदि रहु घट परवेस हुतासे।। दाडिम सिरिफल गगन वास कर ___ सम्भु गरल कर ग्रासे ॥ ६ भुज भय पंक मृनाल नुकाएल कर भय किसलय काँपे। विद्यापति पदावली--रामवृक्ष बेनीपुरी संकलित पदसंख्या २०, पृष्ठ ३०. विहि निरमलि रामा दोसर लछि समा भल तुला एल निरमान ॥ ३ कुच-मंडल सिरि हेरि कनक-गिरि लाजे दिगन्तर गेल । माझ-खोनि तनु भरे भांगि जाय जनु विधि अनुसये भल साजि । नील पटोर आनि अति से सुदृढ़ जानि जतन सिरिजु रोमराजि ॥७ विद्यापति पदावली, पदसंख्या २२, पृ० ३२.
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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