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________________ अपभ्रंश - खंडकाव्य (धार्मिक) १६७ जाहे यण अवलोsवि हरिणिहि, विभिएहिं रद्द वद्धी गहणेहिं । हे भ वकत्ते सुरधणु, जित्तउ हबइ तेण सो णिग्गुणु । जाहे भालहिउ किण्हट्ठमि ससि, हवई खीणु अज्जुवि खेयहो वसि । केसह जाए जित्त अलि सत्यवि, रुणुरुणंत रइ करवि ण कत्थवि । सु. च. ४.३ अर्थात् जो मनोरमा लक्ष्मी के समान है उसकी तुलना किस से की जा सकती है ? जिसकी गति से नितान्त पराजित होकर मानो लज्जित हुए हंस सकलत्र मानस में चले गये। जिसके अतिकोमल और अरुण चरणों को देखकर रक्तकमल जल में प्रविष्ट हो गये। जिसके चरणों की सुन्दर नख कान्ति से पराभूत नक्षत्र आकाश में चले गये । .... जिसकी सुन्दर जंघाओं से तुलना करने पर कदली निस्सार हो खड़ा रहा। जिसके नितंब बिब को न प्राप्त कर काम ने अपने शरीर को भस्मावशेष कर दिया । • जिसकी नाभि के गाम्भीर्य से जीती हुई गंगा की जल भंवर सदा घूमती हुई स्थिर नहीं हो पाती । जिसकी कटि को देखकर क्या सिंह तपश्चरण के विचार से गिरि कन्दरा में चला गया ? जिसकी सुन्दर रोमावली से पराजित होकर लज्जित नागिनी मानो बिल में प्रविष्ट हो गई । यदि विधाता उसकी रोमावली रूपी लोह खला का निर्माण न करता तो उसके मनोहारी और गुरु स्तनभार से कटि अवश्य भग्न हो जाती । जिसकी कोमल बाहुओं को देखकर • . जिसके सुललित पाणिपल्लवों की अशोक दल भी इच्छा करते हैं । जिसके मधुर स्वर को सुन कर कोकिला ने कृष्णता धारण कर ली । जिसकी कंठ रेखाओं से पराजित होकर लज्जित शंख समुद्र में डूब गया । जिसके अर-राग से विजित विद्रुम ने कठिनता धारण कर ली। जिसकी दन्त कान्ति से विजित निर्मल मोती सीपियों के अन्दर जा छिपे । जिसके श्वास सौरभ को न पाकर पवन विक्षिप्त सा चारों ओर दौड़ता फिरता है । जिसके मुख चन्द्र के सामने चन्द्रमा एक खप्पर के समान प्रतीत होता है। जिसकी आँखों को देखकर हरिणियों ने विस्मित होकर पाशबन्धन की कामना बढ़ा ली। जिसकी भौहों की वक्रता से पराजित होकर इन्द्रधनुष निर्गुण हो गया। जिसके भाल से विजित कृष्णपक्ष की अष्टमी का चन्द्र आज भी क्षीण होता है और आकाश में बसता है । जिसके केशों से विजित भ्रमर समूह चारों ओर गुनगुनाता हुआ फिरता है और कहीं भी उसका दिल नहीं लगता । उपरिलिखित वर्णन में कवि ने मनोरमा के अंगों का वर्णन किया है । इसमें नखशिख वर्णन की परिपाटी स्पष्ट परिलक्षित होती है । नख शिख वर्णन वास्तविक नख शिख वर्णन है क्योंकि कवि ने मनोरमा के चरणों से प्रारम्भ कर केशों पर समाप्ति की है । अंगों के उपमान यद्यपि प्रसिद्ध हैं तथापि वर्णन में अनूठापन है । इस प्रकार के वर्णन का आभास संस्कृत कवियों के कुछ पद्यों में भी मिलता है । जैसे— " यत् त्वन्नेत्र समान कान्ति सलिले मग्नं तदिन्दीवरम्" । इत्यादि अर्थात् हे सुन्दरि ! तुम्हारे नेत्रों के समान कान्तिवाला नील कमल जल में डूब गया ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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