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किया है । "
रस — काव्य में शृंगार, वीर और शान्त तीनों रस मिलते हैं । मनोरमा के सौन्दयं चित्रण में और अनेक प्रकार की स्त्रियों के वर्णन में श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति की गई है । धाड़ीवाहन के युद्ध प्रसंग में वीर रस मिलता है। श्रृंगार रस का अन्ततोगत्वा शान्त रस में पर्यवसान दिख ; देता है ।
श्रृंगार रस की अभिव्यंजना में कवि का निम्नलिखित मनोरमा-रूप-वर्णन देखिये
धत्ता
जा लछि समा तहे काउवमा जाहे गइए सकलत्तई । णि णिज्जियां, णं लज्जियहं हंसइं माणसे पत्तई ॥ ४.१ जाहे चरण सारुण अइ कोमल, पेछेवि जले पद्दट्ट रतुप्पल । जाहे पायणह मणिहि विचित्तई, णिरसियाइं हे
ठिय णक्खत्तई ।
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जाहि लडह जंघहि जाहे णियंबु बिवुब
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जाहि नाहि गंभीरिम जाहे मज्भु किमु जाहे सुरोमावलिए
घत्ता-
अपभ्रंश-साहित्य
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होएवि थिउ । अंगुरइ कंतें ।
उहामिउं, रंभउ णीसारउ अलहंतें, परिसेसियउ
अह मदं कलिय रोमावलिय, जइ गवि विहि विरयंत । तो मणहरेण गुरु थलहरेण, मज्झु अवसु भज्जंतउ ॥ ४.२ जाहे णिएविणु कोमलु वाहउ, विस विक रहित गुणउम्मा हउ । जाहे पाणि पल्लवई सुललिलयां, कंकेल्ली दर्लाहिंवि अहिलसि यहि । जाहि सह सिवि अहिह वियए, णं किण्हत्तु धरिउ माहवियए । जाहे कंठ रेहत्तय णिज्जिय, संख समुद्दे वुड्डु णं लज्जिय । जाहे अहरराएं विदुम गुणु, जित्तउ जेण धरइ कठिणत्तणु । जाहे दंसण कंतिए जिय णिम्मल, सिप्पिहें तें पट्ठ मुत्ताहल । जाहे सास सुरहि मणउ पावइ, पवणु तेणउव्विं विरु धावइ । जाहे विमल मुह इंद सयासए, णि वडण खप्परं व ससि भासइ ।
जिसउ, गंगा वत्तु ण थाइ भमंतउ । अवलोएवि, हरि णं तव चरण चित्तु गउ गिरि दरि । परज्जिय, णाइणि विले पइसद्द णं लज्जिय ।
१. जहीं वारुणी की करी रंचक रुचि द्विजराज ।
तहीं कियो भगवंत बिन संपति सोभा साज ॥
केशव कौमुदी प्रथम भाग, टीकाकार ला० भगवानदीन, सं० १९८६ वि०, पृ० ७२