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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) कल कोइल कलयलु जिहं सुण्णइ, तिह पंथिय करंति घरे सुम्मइ।
पाडलियहि जिह भमरु पहावइ, पिय संगरि तिह होइ पहावइ ।
मालइ कुसमु भमर जिह वज्जइ, घरे घरे गहेर तूर तहिं वज्जइ। वियसिय कुसमु जाउ अइ मत्तउ, घुम्मइ कामिणि यणु अइमत्तउ। दरिसिउ कुसम णियर वेयल्लें, पहिए घर गम्मइं वे इल्लें। नील पलास रत्त हुय किंसुय, भन चित्तु जणु जाणइ कि सुय।
मंद मंद मलयानल वायइ, महुर सद्दु जणु वल्लइ वायइ।
३.१२ अर्थात् दिन प्रति दिन जैसे रात्री का परिमाण घटता जाता है इसी प्रकार प्रोषितपतिका की निद्रा भी क्षीण होती जाती है। जिस प्रकार दिन दिन दिवस का प्रहर बढ़ता जाता है इसी प्रकार कामिजनों का रतिरस भी । प्रति दिन जिस प्रकार आम्र मंजरियों का मधु प्रस्रवित होता है इसी प्रकार मानिनी के मान का मद भी विगलित होता जाता है। ज्यों ज्यों कोकिला को मधुर काकली सुनाई देतो जाती है त्यों त्यों पथिक घर लोटने का विचार करते जाते हैं। • • • जिस प्रकार भ्रमर पाटल पुष्प पर दौड़ता है उसी प्रकार प्रभावती-सुन्दरी-नायिका प्रिय संगम के लिए उत्सुक होती है । भ्रमर मालती कुसुम के पास नहीं जाता। घर घर में बाजे बज रहे हैं। अतिमुक्तक लता के फूल विकसित हो रहे हैं। कामिनियाँ अतिमत्त हो घूम रही हैं । जब लताओं पर पुष्प समूह दिखलाई देने लगे, पथिक भी तब घर लौटने लगे । पलाश वृक्षों पर लाल लाल फूल खिल गये, शुक को चित्त में भ्रान्ति होने लगी। ...मंद मंद मलय पवन बहने लगा, मानो मधुर शब्द से वीणा बज रही हो ।। __इसी प्रकार जब राजा उद्यान क्रीड़ार्थ गमन करता है उस समय का निम्नलिखित वर्णन भी अत्यन्त सुन्दर है। इस में पदयोजना भावानुकल ही हुई है। उद्यान में भ्रमरों का गुजन, राजा का मंद मंद भ्रमण पुष्प-मकरंद से सरस एवं पराग रज से रंजित, शान्त और मधर वातावरण शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त हो उठता है । देखिये--
मंद मंदार मयरंद नन्दनं वणं, कुंद करवंद वयकुंद चंदन घणं । तरल दल ताल चल चवलि कयलीसुहं, दक्ख पउमक्ख रुद्दक्ख खोणी रहं । विल्ल वेइल्ल विरिहिल्ल सल्लइवरं, अंब जंवीर जंबू कयंबू वरं। करण कणवीर करमरं करीरायणं, नाग नारंग नागोह नीलंवरं । कुसुम रय पयर पिंजरिय धरणीयलं, तिक्ख नहु चंबु कणयल्ल खंडियफलं । भमिय भमर उल संछइय पंकयसरं, मत्त कलयंठि कलयट्ठ मेल्लिय सरं। रुक्ख रुक्खंमि कप्पयर सिय भासिरि, रइ वराणत्त अवयण्ण माहवसिरि।
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