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अपभ्रंश-साहित्य
संचलन से
घरणी वि संबलइ मंदर वि टलटलइ जलणिहि वि झलझलइ विसहरु वि चलचलइ जिगि जिगिय खग्गाइं णिद्दलिय मग्गाई
ग्रंथ में कवित्व के प्राचुर्य की अपेक्षा घटना का प्राचुर्य है । कवि का वर्ण्य विषय धार्मिक भावना का प्रसार है अतएव अनेक अलौकिक घटनाओं और चमत्कारों का भी समावेश हो गया है । वैसे तो संपूर्ण जैन साहित्य इंद्रजाल, जादू, अलौकिक घटनाओं, चमत्कारों आदि से परिपूर्ण है।' यद्यपि कथाप्रवाह में शिथिलता है तथापि अनेक स्थलों पर काव्यमय सौन्दर्य के दर्शन हो जाते हैं । __ जलक्रीड़ा वर्णन की परिपाटी प्राकृत कवियों में भी दिखाई देती है। राजा लोग दिग्विजय करते हुए शत्रु को पराभूत कर उसकी वापियों में शत्रु के राजा की रानियों के साथ स्नान करते थे। पुष्पदन्त का जलक्रीड़ा वर्णन भी स्वाभाविक और सजीव है। शब्दों में चित्रोलादन की शक्ति है।
गयणिवसण तणु जले ल्हिक्कावइ अद्भुमिल्लु कावि थणु दावइ । पउमणि दल जल बिंदु वि जोयइ कावि तहि जि हारावलि ढोयइ। कावि तरंगहि तिवलिउ लक्खइ सारिच्छउ तहो सुहयहो अक्खइ। काहे वि महुयरु परिमल बहलहो कमलु मुएवि जाइ मुह कमलहो। सुहम जालोल्लु दिट्ठ उहमग्गउ काहे वि अंबर अंगि विलग्गउ। काहे वि उपरियणु जले छोलइ पाणिय छल्लि व लोउ णिहालइ।
अर्थात् कोई स्त्री लज्जा के कारण अपने वस्त्र रहित शरीर को जल में निलीन कर रही है । कोई अर्धोन्मीलित स्तन का प्रदर्शन कर रही है। कोई हारावली को धारण करती हुई जल बिन्दु युक्त पत्र के समान प्रतीत हो रही है। कोई तरंगों से त्रिवलियुक्त प्रतीत हो रही है । भ्रमर कमल को छोड़कर किसी के सुगन्धबहल मुख पर बैठ रहा है। किसी का शरीर लग्न जलार्द्र वस्त्र आकाश के मेघ के समान प्रतीत हो रहा है। किसी के जलगत दुपट्टे को लोक जल पर नीहार के समान देख रहा है ।
भाव व्यंजना-मानव हृदय के भावों का विश्लेषण भी कवि भली भाँति कर सका है । नागकुमार के कश्मीर जाने पर उसे देख कर पुर वधुओं के मन की घबराहट का
१. देखिये इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, भाग १५, पृ० १७५ पर प्रो० कालियाद
__ मित्र का लेख। २. लिहक्कावइ---निलीन करना, छिपाना । दावइ--दिखाती है। सारिच्छउ---
सादृश्य । अक्खइ--कहा जाता है। सुहम--सूक्ष्म । जलोल्लु-जलाई। उप्परियणु--उपरि आधरण। णिहीलइ--निहारना, देखना।